अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒यम् । गौ: । पृश्नि॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । अस॑दत् । मा॒तर॑म् । पु॒र: । पि॒तर॑म् । च॒ । प्र॒ऽयन् । स्व᳡: ॥३१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्वः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अयम् । गौ: । पृश्नि: । अक्रमीत् । असदत् । मातरम् । पुर: । पितरम् । च । प्रऽयन् । स्व: ॥३१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अयम् ) यह (गौ:) पृथिवीलोक, (पृश्निः) जो कि नाना वर्णी है (आ अक्रमीत्) सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रहा है, (पुरः ) पश्चिम से पूर्व की ओर; ( मातरम् अवदत् ) अन्तरिक्ष में स्थित हुआ, (च) और (स्वः) उत्तप्त (पितरम् ) पितॄरूप सूर्य के प्रति ( प्रयन् ) प्रयाण करता हुआ।
टिप्पणी -
[गौ: पृथिवीनाम (निघं. १।१) । पृश्नि: =[प्राष्टवर्णः] भूमिरिति (सायण ऋ० १।२३।१०), पृथिवीलोक नानारूपों से रञ्जित है अतः प्राष्टवर्णः। मातरम्= अन्तरिक्षम्, यथा मातरिश्वा= वायुः, यह मातृभूत अन्तरिक्ष में गति करती है, और बढ़ती है, फैलती है। यथा "मातरिश्वा वायुः, मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति, मातरि आशु अनितीति वा१'' (निरुक्त ७७।२६) । पितरम् = पृथिवी लोक सूर्य से पैदा हुआ है। अतः सूर्य पृथिवी का पिता है। स्वः = स्व उपतापे (भ्वादिः)। आ+ अक्रमीत् (क्रमु पादविक्षेपे भ्वादिः), पादविक्षेप =पाद बढ़ाना, चलना। अक्रमीत् भूतकाल का प्रयोग है। इस द्वारा यह दर्शाया है कि पृथिवीलोक जब से पिता से पैदा हुआ है तभी से पिता की ओर वह पाद बढ़ा रहा है]। [१. अनिति गतिकर्मा (निघं० २।१४ ) ।]