अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः। व्यख्यन्महि॒षः स्वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त: । च॒र॒ति॒ । रो॒च॒ना । अ॒स्य । प्रा॒णात् । अ॒पा॒न॒त: । वि । अ॒ख्य॒त् । म॒हि॒ष: । स्व᳡: ॥३१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तश्चरति रोचना अस्य प्राणादपानतः। व्यख्यन्महिषः स्वः ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त: । चरति । रोचना । अस्य । प्राणात् । अपानत: । वि । अख्यत् । महिष: । स्व: ॥३१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(महिषः) महान्, (स्वः) उत्तप्त सूर्य (व्यख्यत्) विविध ग्रह- उपग्रह आदि को प्रकाशित कर रहा है, (अस्य) इस सूर्य की ( रोचना ) दीप्ति अर्थात् प्रकाश (अन्तः ) पृथिवीलोक के भीतर (चरति) विचरती है, (प्राणात्, अपानतः) और अपान क्रिया के पश्चात् प्राण क्रिया करती है।
टिप्पणी -
[व्यख्यत् = विविध लोकों को प्रख्यात कर रही है। रात्री में सूर्य के प्रकाश का न होना, अपान क्रिया है, तत्पश्चात् दिन में सूर्य के प्रकाश का पुनः आ जाना प्राणक्रिया है। प्रलयावस्था में अन्धकार था, सूर्य के प्रकाश का अभाव था, यह अपानक्रिया थी, तत्पश्चात् सर्जन काल में सूर्य के पैदा हो जाने से पुथिवी आदि में सूर्य के प्रकाश का प्रवेश होना प्राणक्रिया हुई। सूर्य का प्रकाश ही चन्द्रमा को भी प्रदीप्त करता है।]