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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - अंशः, भगः, वरुणः, मित्रम्, अर्यमा, अदितिः, मरुद्गणः छन्दः - संस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - आत्मगोपन सूक्त

    अंशो॒ भगो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मादि॑तिः॒ पान्तु॑ म॒रुतः॑। अप॒ तस्य॒ द्वेषो॑ गमेदभि॒ह्रुतो॑ यावय॒च्छत्रु॒मन्ति॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अंश॑: । भग॑: । वरु॑ण: । मि॒त्र: । अ॒र्य॒मा । अदि॑ति: । पान्तु॑ । म॒रुत॑: । अप॑ । तस्य॑ । द्वेष॑: । ग॒मे॒त् । अ॒भि॒ऽह्रुत॑: । य॒व॒य॒त् । शत्रु॑म् । अन्ति॑तम् ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अंशो भगो वरुणो मित्रो अर्यमादितिः पान्तु मरुतः। अप तस्य द्वेषो गमेदभिह्रुतो यावयच्छत्रुमन्तितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अंश: । भग: । वरुण: । मित्र: । अर्यमा । अदिति: । पान्तु । मरुत: । अप । तस्य । द्वेष: । गमेत् । अभिऽह्रुत: । यवयत् । शत्रुम् । अन्तितम् ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (अंश:) अन्नादि का आंशिक विभागकर्ता "अधिकारी", (भग:) साम्राज्य के समग्रैश्वर्य का अधिकारी "वित्ताधिकारी", (वरुणः ) साम्राज्य के प्रत्येक राष्ट्र का अधिपति राष्ट्र द्वारा 'वरण किया हुआ" अधिकारी (मित्रः) परराष्ट्रों के साथ मैत्री बढ़ाने वाला "विदेशनीति का दूत", (अर्यमा) मुख्य न्यायाधीश, (अदितिः) राजनीति की शिक्षा देने वाली वेदवाणी, (मरुतः) तथा सैनिक (पान्तु) ये सब हम प्रजाजनों की रक्षा करें। (तस्य) उस शत्रु का (अभिह्रुतः) कुटिल (द्वेष:) हमारे साथ किया गया द्वेष (अपगमेत्) दूर हो जाय। और (अन्तितम्) हमारी सीमान्त में फैले (शत्रुम्) शत्रु को (यावयत्) हमारा सम्राट् हमारो सीमा से अलग कर दे, परे कर दे।

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