Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
सूक्त - प्रचेता
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरीगर्भा जगती
सूक्तम् - दुःष्वप्ननाशन
वि॒द्म ते॑ स्वप्न ज॒नित्रं॑ देवजामी॒नां पु॒त्रोऽसि॑ य॒मस्य॒ कर॑णः। अन्त॑कोऽसि मृ॒त्युर॑सि॒। तं त्वा॑ स्वप्न॒ तथा॒ सं वि॑द्म॒ स नः॑ स्वप्न दुः॒ष्वप्न्या॑त्पाहि ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म । ते॒ । स्व॒प्न॒ । ज॒नित्र॑म् । दे॒व॒ऽजा॒मी॒नाम् । पु॒त्र: । अ॒सि॒ । य॒मस्य॑ । कर॑ण: । अन्त॑क: । अ॒सि॒ । मृ॒त्यु: । अ॒सि॒ । तम् । त्वा॒ । स्व॒प्न॒ । तथा॑ । सम् । वि॒द्म॒ । स: । न॒: । स्व॒प्न॒ । दु॒:ऽस्वप्न्या॑त् । पा॒हि॒ ॥४६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्म ते स्वप्न जनित्रं देवजामीनां पुत्रोऽसि यमस्य करणः। अन्तकोऽसि मृत्युरसि। तं त्वा स्वप्न तथा सं विद्म स नः स्वप्न दुःष्वप्न्यात्पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म । ते । स्वप्न । जनित्रम् । देवऽजामीनाम् । पुत्र: । असि । यमस्य । करण: । अन्तक: । असि । मृत्यु: । असि । तम् । त्वा । स्वप्न । तथा । सम् । विद्म । स: । न: । स्वप्न । दु:ऽस्वप्न्यात् । पाहि ॥४६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(स्वप्न) हे स्वप्न ! (ते) तेरे (जनित्रम्) जन्मस्थान को (विद्म) हम जानते हैं, (देवजामीनाम्१) इन्द्रियों की पत्नियों वृत्तियों का (पुत्रः असि) तू पुत्र है, (यमस्य) दिन का यम-नियमरूपी चित्तवृत्तियों का तू (करण:) कर्म है। (अन्तकः असि) तू दुःस्वप्नों और उनके परिणामों को अन्त कर देता है, समाप्त कर देता है, (मृत्युः असि) तू उनके लिए मूत्युरूप है। (स्वप्न) हे स्वप्न ! (तं त्वा) उस तुझको (तथा) उन गुणों वाला है (सं विद्म) यह हम सम्यक्तया जानते हैं। (स्वप्न) हे स्वप्न ! (स:) वह तू (नः) हमें (दुष्वप्न्यात्) दुःस्वप्न और उसके दुष्परिणामों से (पाहि) रक्षित कर।
टिप्पणी -
[मन्त्र में "स्वप्न" से अभिप्राय है सात्त्विक स्वप्न। और दुःस्वप्न हैं राजसिक और तामसिक स्वप्न। जिस अनुपात से जीवन में सात्विक स्वप्न उत्पन्न होते रहते हैं, उसी अनुपात से राजसिक और तामसिक स्वप्नों का अन्त और मृत्यु होती जाती है। स्वप्न का सम्वोधन कविता शैली से है। इस प्रकरण की विशेष व्याख्या अथर्व का १६। सूक्त ५।८-१० में, तथा अथर्व १६।५ के समग्र सूक्त में सामान्य रूप से कर दी गई है।]। [१. देवजामीनाम् पूत्र:= इन्द्रियों की वृत्तियों द्वारा उत्पादित चित्त वृत्तियों का पुत्र स्वप्न।]