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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विश्वस्रष्टा सूक्त
मह्य॒मापो॒ मधु॑म॒देर॑यन्तां॒ मह्यं॒ सूरो॑ अभर॒ज्ज्योति॑षे॒ कम्। मह्यं॑ दे॒वा उ॒त विश्वे॑ तपो॒जा मह्यं॑ दे॒वः स॑वि॒ता व्यचो॑ धात् ॥
स्वर सहित पद पाठमह्य॑म् । आप॑: । मधु॑ऽमत् । आ । ई॒र॒य॒न्ता॒म् । मह्य॑म् । सुर॑: । अ॒भ॒र॒त् । ज्योति॑षे । कम् । मह्य॑म् । दे॒वा: । उ॒त । विश्वे॑ । त॒प॒:ऽजा: । मह्य॑म् । दे॒व: । स॒वि॒ता । व्यच॑: । धा॒त् ॥६१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मह्यमापो मधुमदेरयन्तां मह्यं सूरो अभरज्ज्योतिषे कम्। मह्यं देवा उत विश्वे तपोजा मह्यं देवः सविता व्यचो धात् ॥
स्वर रहित पद पाठमह्यम् । आप: । मधुऽमत् । आ । ईरयन्ताम् । मह्यम् । सुर: । अभरत् । ज्योतिषे । कम् । मह्यम् । देवा: । उत । विश्वे । तप:ऽजा: । मह्यम् । देव: । सविता । व्यच: । धात् ॥६१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(मह्यम्) मेरे१ लिये (आप:) [नदियों के] जल, (मधुमत्) मधुर-जल (एरयन्ताम्) प्रेरित करें, प्रवाहित करें; मह्यम्, ज्योतिषे) मुझ ज्योतिः स्वरूप के लिये (सूरः) सूर्य (कम्) सुखप्रद [रश्मि समूह] को (अभरत्) धारण किये हुए है। (मह्यम्) मेरे लिये हैं (देवा:) देव२ (उत) तथा (विश्वे) सब (तपोजाः) ताप से उत्पन्न [नक्षत्र-तारागण]; (मह्यम्) मेरे लिये (देवः सविता) द्युतिमान् सविता ने (व्यचः) विस्तार (धात्) स्थापित किया है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में “मह्यम्" द्वारा परमेश्वर ने अपने-आप को सूचित किया है। वही अथर्वा है, "यर्वतिः चरतिकर्मा तत्प्रतिषधः" (निरुक्त ११।२।१९)। परमेश्वर अथर्वा है, निश्चल है, कूटस्थ है। अथर्वा, मानुष-ऋषि नहीं। "ज्योतिष" अथवा सौर मण्डल के प्रकाश के लिये। सविता है प्रत्यग्र उदित सूर्य जब कि आकाश तो चमक जाता है, परन्तु पृथिवी पर अभी अन्धकार शेष रहता है (निरुक्त १२।२।१४)। सविता के उदय होने से पूर्व अन्धकार था, दूर की वस्तु दीखती न थी। सविता के उदय होने पर दूर-दूर की वस्तुएं दीखने लगीं, यह अभिप्राय है "व्यचो धात्" का]। [१. मेरी प्रसन्नता के लिये, या मेरी आशा के पालन के लिये; आज्ञाभंग होने पर हम सूर्यादिदेव दण्डित न हो जाय इस भय से, यथा "भवादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धाविति पंञ्चमः। २. अथवा देवाः विद्वांसः, तपोजाः तपस्विनः]