Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
सूक्त - द्रुह्वण
देवता - यमः
छन्दः - अतिजगतीगर्भा
सूक्तम् - वर्चोबलप्राप्ति सूक्त
नमो॑ऽस्तु ते निरृते तिग्मतेजोऽय॒स्मया॒न्वि चृ॑ता बन्धपा॒शान्। य॒मो मह्यं॒ पुन॒रित्त्वां द॑दाति॒ तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । अ॒स्तु॒ । ते॒ । नि॒:᳡ऋ॒ते॒ । ति॒ग्म॒ऽते॒ज॒: । अ॒य॒स्मया॑न् । वि । चृ॒त॒ । ब॒न्ध॒ऽपा॒शान् । य॒म: । मह्य॑म् । पुन॑: । इत् । त्वाम् । द॒दा॒ति॒ । तस्मै॑ । य॒माय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥६३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नमोऽस्तु ते निरृते तिग्मतेजोऽयस्मयान्वि चृता बन्धपाशान्। यमो मह्यं पुनरित्त्वां ददाति तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । अस्तु । ते । नि:ऋते । तिग्मऽतेज: । अयस्मयान् । वि । चृत । बन्धऽपाशान् । यम: । मह्यम् । पुन: । इत् । त्वाम् । ददाति । तस्मै । यमाय । नम: । अस्तु । मृत्यवे ॥६३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(तिग्मतेजः) हे तिग्म और तेज वस्तुओं वाली (निर्ऋते) कृच्छ्रापत्ति ! (ते) तेरे [शमन के] लिये (नम:) उचित अन्न का प्रयोग (अस्तु) हो, (अयस्मयान्) लोहे के सदृश दृढ़ (बन्धपाशान्) वान्धने वाले पाशों को (विचृत) तू१ खोल दे। (यमः) नियन्ता परमेश्वर (त्वा) तुझ हे रुग्ण पुरुष ! (पुनः इत्) फिर (मह्यम्) मुझे (ददाति) देता है, (तस्मै) उस (यमाय) नियन्ता१ परमेश्वर के लिये (मृत्यवे) जो कि मृत्यु१ करता है (नमः अस्तु) नमस्कार हो।
टिप्पणी -
[कृच्छ्रापत्ति का सम्बन्ध, तिग्म और तेज वस्तुओं के खाने-पीने के साथ है। ऐसे पदार्थों के अधिक खाने-पीने से गल बन्ध हो जाता है, गला रुग्ण हो जाता है। नमः अन्ननाम (निघं २।७) नमः का अर्थ नमस्कार तो प्रसिद्ध ही है। विचार = वि+ चृती हिंसाग्रन्थनयोः (तुदादिः) वि (विगत करना) + चृत (वन्धन से)। परमेश्वर का नाम मृत्यु भी है। यथा "स एव मृत्युः सोऽमृतं सोऽभ्वं स: रक्षः" (अथर्व काण्ड १३। अनुवाक ४। पर्याय ३ मन्त्र ४ (२४)। अर्थात् वह परमेश्वर ही मृत्यु है, वह अमृत है, वह प्रलय में सद्-जगत् को अस् करता है [अ+ भू सत्तायाम्, वह उत्पन्न जगत् का रक्षक है। मह्यम्=इस द्वारा आचार्य कहता है कि परमेश्वर ने, हे शिष्य ! तुझे स्वस्थ कर मुझे प्रदान किया है] [१. अथवा "यम" है "आश्रम का नियन्ता याचार्य, वही है मत्यु अर्थात् ब्रह्मचारी को द्विजन्मा बनाकर नवजीवन देने वाला, यथा “आचार्यो मृत्युः (अथर्व ११।५।१४)। इस अर्थ में "मह्यम्" द्वारा ब्रह्मचारी के पिता का निर्देश हुआ है।]