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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 63

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
    सूक्त - द्रुह्वण देवता - मृत्युः छन्दः - जगती सूक्तम् - वर्चोबलप्राप्ति सूक्त

    अ॑य॒स्मये॑ द्रुप॒दे बे॑धिष इ॒हाभिहि॑तो मृ॒त्युभि॒र्ये स॒हस्र॑म्। य॒मेन॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒न उ॑त्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒य॒स्मये॑ । द्रु॒ऽप॒दे । बे॒धि॒षे॒ । इ॒ह । अ॒भिऽहि॑त: । मृ॒त्युऽभि॑: । ये । स॒हस्र॑म् । य॒मेन॑ । त्वम् । पि॒तृऽभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । उ॒त्ऽत॒मम् । नाक॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । इ॒मम् ॥६३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयस्मये द्रुपदे बेधिष इहाभिहितो मृत्युभिर्ये सहस्रम्। यमेन त्वं पितृभिः संविदान उत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयस्मये । द्रुऽपदे । बेधिषे । इह । अभिऽहित: । मृत्युऽभि: । ये । सहस्रम् । यमेन । त्वम् । पितृऽभि: । सम्ऽविदान: । उत्ऽतमम् । नाकम् । अधि । रोहय । इमम् ॥६३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    [हे निर्ऋति अर्थात् कृच्छ्रापति !] (इह) इस मर्त्यलोक में (अयस्मये) मोहनिर्मित (द्रुपदे) पैर की बेड़ी में तू (बेधिषे) बान्धती है, तो (मुत्युभिः) मृत्यु [कष्टों] द्वारा (अभिहितः१) पुरुष बन्ध जाता है, (ये) जो मृत्युएं [कष्ट] कि (सहस्रम्) हजार प्रकार की हैं। (त्वम्) हे शिष्य ! तू (यमेन) नियन्ता आचार्य और (पितृभिः) आश्रम के अन्य गुरुओं के साथ (संविदानः) ऐकमत्य को प्राप्त हो जा [उन के निर्देशानुसार निज जीवनचर्या कर], और हे आचार्य ! तू (इमम्) इस शिष्य को (उत्तमम्) उत्कृष्ट (नाकम्) दुःखों से रहित सुख के लोक पर (अधिरोहय) चढ़ा, नाकगमन के योग्य कर।

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