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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - अदितिः, आपः, प्रजापतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वपन सूक्त
अदि॑तिः॒ श्मश्रु॑ वप॒त्वाप॑ उन्दन्तु॒ वर्च॑सा। चिकि॑त्सतु प्र॒जाप॑तिर्दीर्घायु॒त्वाय॒ चक्ष॑से ॥
स्वर सहित पद पाठअदि॑ति: । श्मश्रु॑। व॒प॒तु॒ । आप॑: । उ॒न्द॒न्तु॒ । वर्च॑सा । चिकि॑त्सतु । प्र॒जाऽप॑ति: । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । चक्ष॑से ॥६८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा। चिकित्सतु प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय चक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठअदिति: । श्मश्रु। वपतु । आप: । उन्दन्तु । वर्चसा । चिकित्सतु । प्रजाऽपति: । दीर्घायुऽत्वाय । चक्षसे ॥६८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अदितिः) अदीना-देव माता अर्थात् बह्मचर्याश्रमवासी गुरुदेवों की मातृ रूपा, आचार्यपत्नी (श्मश्रु) मोंछों का (वपतु) छेदन करे, (आप: उन्दन्तु) जल, मुण्डन संस्कार हो जाने पर ब्रह्मचारी को जल स्नान करा कर (वर्चसा) तेज से सम्बद्ध करें। तदनन्तर (प्रजापतिः) आश्रमवासी प्रजाजनों का अधिपति आचार्य (चिकित्सतु१) ब्रह्मचारी की चिकित्सा करे, उसके बुरे संस्कार रूपी रोगों का निवारण करे, (दीर्घायुत्वाय) ताकि वह दीर्घजीवी हो, (चक्षसे) और वह दीर्घ काल तक व्यक्त वाणो द्वारा बोल सके। अथवा उसकी चक्षु आदि इन्द्रियां दीर्घकाल तक स्वस्थ रह सकें।
टिप्पणी -
[जैसे चूड़ाकर्म संस्कार में पिता प्रथम पुत्र के कतिपय केशों का छेदन स्वयं करता है, तदनन्तर नापित पूरा मुण्डम करता है। इस विधि को अदिति सम्पन्न करती है। "शमश्श्रु" प्रौढ़ पुरुष के होते हैं बालक के नहीं अतः मन्त्र में प्रौढ़ावस्था के भी पुरुषों के लिये, अध्ययनार्थ, उपनयन विधि द्वारा ब्रह्मचर्याश्रम में प्रविष्ट होने की विधि को सूचित किया है।] [चक्षसे =चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि। "असनयोश्च प्रतिषेधः" (पा. वा. २।४।५४) इति स्मरणात् ख्याञादेशाभाव:" (सायण)]। [१. अथवा "ब्रह्मचारी को ज्ञान प्रदान करे"। कित ज्ञाने (सायण)।]