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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 113/ मन्त्र 2
सूक्त - भार्गवः
देवता - तृष्टिका
छन्दः - शङ्कुमती चतुष्पदा भुरिगुष्णिक्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
तृ॒ष्टासि॑ तृष्टि॒का वि॒षा वि॑षात॒क्यसि। परि॑वृक्ता॒ यथास॑स्यृष॒भस्य॑ व॒शेव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतृ॒ष्टा । अ॒सि॒ । तृ॒ष्टि॒का । वि॒षा । वि॒षा॒त॒की । अ॒सि॒ । परि॑ऽवृक्ता । यथा॑ । अस॑सि । ऋ॒ष॒भस्य॑ । व॒शाऽइ॑व ॥११८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तृष्टासि तृष्टिका विषा विषातक्यसि। परिवृक्ता यथासस्यृषभस्य वशेव ॥
स्वर रहित पद पाठतृष्टा । असि । तृष्टिका । विषा । विषातकी । असि । परिऽवृक्ता । यथा । अससि । ऋषभस्य । वशाऽइव ॥११८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 113; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(तृष्टा असि) तू तृष्णा है, (तृष्टिका) चाहे अल्पतृष्णा है, (विषा) तथापि विषरूपा है, (विषातकी) विषरूपा हुई जीवन को कष्टमय करने वाली (असि) तू है। (यथा) जिस किसी प्रकार से भी (परिवृक्ता) तू पूर्णतया व्यक्त१ कर दी गई है, (इव) जैसे (ऋषभस्य) श्रेष्ठ पुरुष द्वारा (वशा) कामना१ परित्यक्त कर दी जाती है।
टिप्पणी -
[विषातकी= विषरूपा तृष्णा+तकि कृच्छ्रजीवने (भ्वादिः)। वशा= वश कान्तौ, कान्तिः कामना, विषयभोगेच्छा, कामात्मता। यथा “कामात्मता न प्रशस्ता" (मनु)।] [१. तृष्णा है विषय-भोग की पिपासा। तृष्णा के उद्भूत होने पर संयम द्वारा उसके विषय के उपभोग से विरत रहते हुए, शनैः शनैः तृष्णा के वेग का क्षय होता जाता है। शेष बची अल्प तृष्णा के प्रति कहा है कि तू भी निज स्वरूप में शान्त हो जा। जैसे कि मनु ने कहा है कि "न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते"। अर्थात् काम के उपभोग से काम बढ़ता है, जैसे कि हवि द्वारा अग्नि बढ़ती है। क्षुधा और तृष्णा भिन्न-भिन्न हैं।]