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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
सूक्त - भार्गवः
देवता - तृष्टिका
छन्दः - विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
तृष्टि॑के॒ तृष्ट॑वन्दन॒ उद॒मूं छि॑न्धि तृष्टिके। यथा॑ कृ॒तद्वि॒ष्टासो॒ऽमुष्मै॑ शे॒प्याव॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठतृष्टि॑के । तृष्ट॑ऽवन्दने । उत् । अ॒मूम् । छि॒न्धि॒ । तृ॒ष्टि॒के॒ । यथा॑ । कृ॒तऽद्वि॑ष्टा । अस॑: । अ॒मुष्मै॑ । शे॒प्याऽव॑ते ॥११८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तृष्टिके तृष्टवन्दन उदमूं छिन्धि तृष्टिके। यथा कृतद्विष्टासोऽमुष्मै शेप्यावते ॥
स्वर रहित पद पाठतृष्टिके । तृष्टऽवन्दने । उत् । अमूम् । छिन्धि । तृष्टिके । यथा । कृतऽद्विष्टा । अस: । अमुष्मै । शेप्याऽवते ॥११८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 113; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(तृष्टिके) हे अल्पतृष्णा ! (तुष्टवन्दने) हे तृष्णावालों द्वारा स्तुति प्राप्त हुई ! (तृष्टिके) हे अल्पतृष्णा ! तू (अमुष्मै) उस (शेप्यावते) वीर्य रक्षक के लिये (यथा) जिस किसी प्रकार से भी (कृतद्विष्टा) द्विष्ट हुई। (असः) हो जा, और (अमूम्) उस शेष बची तृष्णा का भी (उत् छिन्धि) उच्छेद कर।
टिप्पणी -
[तृष्टिके= तृष् + भावे क्तः + कन्, टाप् (अल्पे, अष्टा० ५।३।८५)। तृष्ट वन्दने= तृष्ट, तृष्णावालों (कर्तरि क्तः) द्वारा + वन्दने= अभिवन्दिते स्तुत्ये। तू, अमूम्= उस अवशिष्ट तृष्णा का "उच्छिन्धि" उच्छेद कर। व्यक्ति है शेप्यावत् = शेषः पुरुषेन्द्रिय, शेप्य= तद्भव वीर्य + अव् रक्षायाम्, शतृ प्रत्यय।व्यक्ति जो विषयभोग से पराङ्मुख हो गया है, और योगमार्ग की ओर जाना चाहता है वह अल्प विषयतृष्णा को भी योगमार्ग में बाधिका मानता है, और वीर्य की रक्षा करता है। वीर्य, योग में साधक है, यथा “श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्” (योग १।२०)। शेप्यावते = शेप्य + अवते। अन्यथा "शेप्या" में "आकार" व्यर्थ होगा। "तृष्टिके" का दो वार प्रयोग उसकी निश्चित अल्पता दर्शाने के लिये है। तृष्टवन्दने = तृष्टैः वन्दनं यस्याः, तत्सम्बुद्धौ]।