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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 112/ मन्त्र 2
मु॒ञ्चन्तु॑ मा शप॒थ्या॒दथो॑ वरु॒ण्यादु॒त। अथो॑ य॒मस्य॒ पड्वी॑शा॒द्विश्व॑स्माद्देवकिल्बि॒षात् ॥
स्वर सहित पद पाठमु॒ञ्चन्तु॑ । मा॒ । श॒प॒थ्या᳡त् । अथो॒ इति॑ । व॒रु॒ण्या᳡त् । उ॒त । अथो॒ इति॑ । य॒मस्य॑ । पड्वी॑शात् । विश्व॑स्मात् । दे॒व॒ऽकि॒ल्बि॒षात् ॥११७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मुञ्चन्तु मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत। अथो यमस्य पड्वीशाद्विश्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥
स्वर रहित पद पाठमुञ्चन्तु । मा । शपथ्यात् । अथो इति । वरुण्यात् । उत । अथो इति । यमस्य । पड्वीशात् । विश्वस्मात् । देवऽकिल्बिषात् ॥११७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 112; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
[आपः (मन्त्र १), जल] (शपथ्यात्) शपथ लेने के दोष से, (उत) और (अथो) तत्पश्चात् (वरुण्यात्) वरुणसम्बन्धी जलोदर रोग से, (अथो) तत्पश्चात् (यमस्य) मृत्युसम्बन्धी (पड्वीशात्) पादबन्धन से, बेड़ी से तथा (विश्वस्मात्) सब (दवकिल्बिषात्) इन्द्रिय-दोषों से (मा) मुझे (मुञ्चन्तु) मुक्त करें, छुड़ा दें]।
टिप्पणी -
[मन्त्र में जलचिकित्सा का वर्णन है। शपथें सदा झूठी होती हैं, जो कि मानसिक विकृति के कारण होती हैं, जलचिकित्सा से यह मानसिक विकृति ठीक हो जाती है। वरुण है अपामधिपति। यथा “वरुणोऽपामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।४)। जलोदर रोग जलसम्बन्धी है, अतः यह वरुण्य है। देव= इन्द्रियां यथा "देवा द्योतनात्मकाः चक्षुरादीन्द्रियाणि" (महीधर, यजु० ४०।४)। इन्द्रियों के किल्बिष१ अर्थात् दोष या रोग भी जल चिकित्सा द्वारा शान्त हो जाते हैं। जलचिकित्सा द्वारा शारीरिक मलों के नाश से मनुष्य पूर्ण आयु भोगता है, अतः वह मृत्यु सम्बन्धी पादबन्धन से रहित हो जाता है। पड्वीशः = "पदि विशतीति"]। [१. किल्विष= किल (निश्चित) + विष (दोष घौर रोग, जो कि इन्द्रियों के लिये विषरूप हैं)। उणादिकोष में किल्विष को “किल्बिष" मान कर "किल् + बुक् + रिषच्" द्वारा व्युत्पन्न माना है (१।५०), और निरुक्त में किल्बिषम् की निरुक्ति “किल्भिदम्” कही है (११।३।२३); किल्बिषम् = किल् बि (भि= भी) + षणु दाने; भयप्रदम्।]