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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 112/ मन्त्र 1
सूक्त - वरुणः
देवता - आपः, वरुणः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - पापनाशन सूक्त
शुम्भ॑नी॒ द्यावा॑पृथि॒वी अन्ति॑सुम्ने॒ महि॑व्रते। आपः॑ स॒प्त सु॑स्रुवुर्दे॒वीस्ता नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठशुम्भ॑नी॒ इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अन्ति॑सुम्ने॒ इत्यन्ति॑ऽसुम्ने । महि॑व्रते॒ इति॑ महि॑ऽव्रते । आप॑: । स॒प्त । सु॒स्रु॒वु॒: । दे॒वी: । ता: । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥११७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शुम्भनी द्यावापृथिवी अन्तिसुम्ने महिव्रते। आपः सप्त सुस्रुवुर्देवीस्ता नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठशुम्भनी इति । द्यावापृथिवी इति । अन्तिसुम्ने इत्यन्तिऽसुम्ने । महिव्रते इति महिऽव्रते । आप: । सप्त । सुस्रुवु: । देवी: । ता: । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥११७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 112; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी (शुम्भनी) शोभा युक्त हैं, (अन्ति सुम्ने) अति सुखदायी हैं, अथवा अन्तिक अर्थात् उन के समीप पहुंचने पर वे सुखदायी होते हैं, (महिव्रते) वे महाव्रती हैं। (सप्त) तथा ७ प्राण, (देवीः आपः) दिव्य जलों की तरह, (सुस्रुवुः) स्रवित हुए हैं। (ताः) उन जलों के सदृश ७ स्राव (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें।
टिप्पणी -
[मन्त्र में प्रातः काल के त्वरित-भ्रमण का कथन हुआ है। प्रातः काल में उषा के प्रकाश में द्यौ और पृथिवी शोभायमान होते हैं। ये दोनों अपने अपने महाव्रतों में सदा रहते हैं, व्रतभंग नहीं करते। ७ प्राण हैं, प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान तथा पायु का नियमपूर्वक स्राव और उपस्थ द्वारा मूत्र का स्राव। जलों का स्रवण होना, उनका स्वाभाविक धर्म है। “अंहस्" का अभिप्राय है स्रावों के ठीक प्रकार से स्रवित न होने से उत्पन्न कष्ट।