Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 12

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
    सूक्त - शौनकः देवता - मनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यद्वो॒ मनः॒ परा॑गतं॒ यद्ब॒द्धमि॒ह वे॒ह वा॑। तद्व॒ आ व॑र्तयामसि॒ मयि॑ वो रमतां॒ मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । व॒: । मन॑: । परा॑ऽगतम् । यत् । ब॒ध्दम् । इ॒ह । वा॒ । इ॒ह । वा॒ । तत् । व॒: । आ । व॒र्त॒या॒म॒सि॒ । मयि॑ । व॒: । र॒म॒ता॒म् । मन॑: ॥१३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वो मनः परागतं यद्बद्धमिह वेह वा। तद्व आ वर्तयामसि मयि वो रमतां मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । व: । मन: । पराऽगतम् । यत् । बध्दम् । इह । वा । इह । वा । तत् । व: । आ । वर्तयामसि । मयि । व: । रमताम् । मन: ॥१३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 12; मन्त्र » 4

    भाषार्थ -
    हे सदस्यो ! (यद्) जो (वः) तुम्हारा (मनः) समुदित मन (परागतम्) [प्रस्तुत विषय से] परे गया हुआ है, पराङ्मुख हुआ हुआ है, या (यद् इह वा इह वा) जो इधर-उधर [के विषय के साथ] (बद्धम्) बन्धा हुआ है, संलग्न है, (वः) तुम्हारे (तत्) उस समुदित मन को (आव तैयामसि) [मैं सभापति तथा मन्त्रीगण] लौटाते हैं, ताकि (वः) तुम्हारा समुदित (मनः) मन (मयि) मुझ सभापति [द्वारा प्रस्तावित विषय] में (रमताम्) रमण करे।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top