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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
सूक्त - मेधातिथिः
देवता - अग्नाविष्णू
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अग्नाविष्णु सूक्त
अग्ना॑विष्णू॒ महि॒ धाम॑ प्रि॒यं वां॑ वी॒थो घृ॒तस्य॒ गुह्या॑ जुषा॒णौ। दमे॑दमे सुष्टु॒त्या वा॑वृधा॒नौ प्रति॑ वां जि॒ह्वा घृ॒तमुच्च॑रण्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ना॑विष्णू॒ इति॑ । महि॑ । धाम॑ । प्रि॒यम् । वा॒म् । वी॒थ: । घृ॒तस्य॑ । गुह्या॑ । जु॒षा॒णौ । दमे॑ऽदमे । सु॒ऽस्तु॒त्या । व॒वृ॒धा॒नौ । प्रति॑ । वा॒म् । जि॒ह्वा । घृ॒तम् । उत् । च॒र॒ण्या॒त् ॥३०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नाविष्णू महि धाम प्रियं वां वीथो घृतस्य गुह्या जुषाणौ। दमेदमे सुष्टुत्या वावृधानौ प्रति वां जिह्वा घृतमुच्चरण्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नाविष्णू इति । महि । धाम । प्रियम् । वाम् । वीथ: । घृतस्य । गुह्या । जुषाणौ । दमेऽदमे । सुऽस्तुत्या । ववृधानौ । प्रति । वाम् । जिह्वा । घृतम् । उत् । चरण्यात् ॥३०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अग्नाविष्णू) हे अग्नि और विष्णु [सूर्य] (वाम्) तुम दोनों का (महिधाम) महातेज (प्रियम्) प्रिय है, तुम दोनों (घृतस्य) घृत के (गुह्या = गुह्यानि) अप्रसिद्ध चरु पुरोडाश आदि पदार्थों का (जुषाणौ) प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए (वीथः) भक्षण करते हो। (दमे दमे) घर-घर मैं (सुष्टुत्या = सुष्टुत्यौ) उत्तम विधि से स्तुति प्राप्त करते हो, (वावृधानौ) हमें बढ़ाते हो (वाम्) तुम दोनों की (जिह्वा) जिह्वा (घृतम् प्रति) घृत की ओर [आ कर] इसे (उच्चरण्यात्) ऊर्ध्वगति प्रदान करे।
टिप्पणी -
[घृत द्वारा तैयार किये गये हव्यों की आहुतियां अग्नि के तेज में तथा सूर्य के उदित होने पर देनी चाहिये। ये दोनों तेजावस्थाएं आहुतियों के निमित्त प्रिय हैं। "सुष्टुत्या" का अभिप्राय है कि मन्त्रोच्चारण पूर्वक आहव्य देवों के गुणधर्मों का कथन करते हुए आहुतियां देना। आहुतियों द्वारा घर-घर में वृद्धि होती है। "उच्चरण्यात्" अग्नि में आहुति देने तथा सूर्य के उदित हुए आहुति देने से यज्ञधूम की गति ऊर्ध्वं अन्तरिक्ष में जा कर फैल जाती है। "उच्चरण्यात्"= उत् (ऊर्ध्वम्) + चरण्यात् (चरण गतौ, कण्ड्वादिः)]।