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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
उप॑ प्रि॒यं पनि॑प्नतं॒ युवा॑नमाहुती॒वृध॑म्। अग॑न्म॒ बिभ्र॑तो॒ नमो॑ दी॒र्घमायुः॑ कृणोतु मे ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । प्रि॒यम् । पनि॑प्नतम् । युवा॑नम् । आ॒हु॒ति॒ऽवृध॑म् । अग॑न्म । बिभ्र॑त: । नम॑: । दी॒र्घम् । आयु॑: । कृ॒णो॒तु॒ । मे॒ ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उप प्रियं पनिप्नतं युवानमाहुतीवृधम्। अगन्म बिभ्रतो नमो दीर्घमायुः कृणोतु मे ॥
स्वर रहित पद पाठउप । प्रियम् । पनिप्नतम् । युवानम् । आहुतिऽवृधम् । अगन्म । बिभ्रत: । नम: । दीर्घम् । आयु: । कृणोतु । मे ॥३३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(प्रियम्) प्रिय (पनिप्नतम्) स्तुत्य तथा व्यवहारकुशल, (युवानम्) युवा तथा (आहुतीवृधम्) यज्ञाहुतियों द्वारा बढ़ाने वाले [सम्राट्] को (उप अगन्म) हम प्राप्त हुए हैं (नमः) नमस्कार या अन्न को (बिभ्रत) धारण करते हुए; वह [सम्राट्] (मे) मेरी (आयु:) आयु को (दीर्घम् कृणोतु) दीर्घ करे।
टिप्पणी -
[सूक्त (३२) से "इन्द्र" का अनुवर्त्तन हुआ है। सम्राट् ऐसा होना चाहिये जो प्रत्येक प्रजाजन को प्रिय हो, जो यज्ञकर्मों द्वारा प्रजा की आयु को बढ़ाए, युवा तथा व्यवहारकुशल हो। नमः अन्ननाम (निघं २।७) अर्थात् साम्राज्य में उत्पन्न अन्न का षष्ठांश भाग, “कररूप" में स्वेच्छया प्रदान करते हुए। पनिप्नतम्= पण व्यवहारे स्तुतौ च। पन च (भ्वादिः), यङ्लुकि रूपम् (सायण)]।