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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - जातवेदाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सपत्नीनाशन सूक्त
परं॒ योने॒रव॑रं ते कृणोमि॒ मा त्वा॑ प्र॒जाभि भू॒न्मोत सूनुः॑। अ॒स्वं त्वाप्र॑जसं कृणो॒म्यश्मा॑नं ते अपि॒धानं॑ कृणोमि ॥
स्वर सहित पद पाठपर॑म् । योने॑: । अव॑रम् । ते॒ । कृ॒णो॒मि॒ । मा । त्वा॒ । प्र॒ऽजा । अ॒भि । भू॒त् । मा । उ॒त । सूनु॑: । अ॒स्व᳡म् । त्वा॒ । अप्र॑जसम् । कृ॒णो॒मि॒ । अश्मा॑नम् । ते॒ । अ॒पि॒ऽधान॑म् । कृ॒णो॒मि॒ ॥३६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
परं योनेरवरं ते कृणोमि मा त्वा प्रजाभि भून्मोत सूनुः। अस्वं त्वाप्रजसं कृणोम्यश्मानं ते अपिधानं कृणोमि ॥
स्वर रहित पद पाठपरम् । योने: । अवरम् । ते । कृणोमि । मा । त्वा । प्रऽजा । अभि । भूत् । मा । उत । सूनु: । अस्वम् । त्वा । अप्रजसम् । कृणोमि । अश्मानम् । ते । अपिऽधानम् । कृणोमि ॥३६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(ते) तेरी (योनेः) योनि के (परम्) पहले भाग को (अवरम्) नीचे की भोर (कृणोमि) मैं करता हूं, [इस प्रकार] (त्वा अभि) तुझे लक्ष्य करके (मा प्रजा भूत्) न कन्या हो, (उत) और (मा सूनुः) न पुत्र हो। (त्वा) तुझे (अस्वम्) प्रसूतिरहित (अप्रजसम्) अर्थात् प्रजारहित (कृणोमि) मैं करता हूं: (अश्मानं ते अपिधानं कृणोमि) तेरे मार्ग को मैं बन्द कर देता हूं जैसे कि पत्थर द्वारा बिल को बन्द कर दिया जाता है। मन्त्र २,३ में "ते" पद एकवचन में है। इसलिये जो कोई नारी सन्तान प्रतिबन्ध चाहे उसके लिये इन प्रयोगों का विधान हुआ है, अनिच्छुक पर नहीं। योनि के पैन्दे और योनि के मुख के व्यत्यास में पौरुषप्रसङ्ग नहीं हो सकता। ये प्रयोग, अल्पकालिक भी हो सकते हैं, और स्थिर भी। अपिधानम्= पिधानम्, बन्द करना१]।
टिप्पणी -
[१. गर्भपात धर्मविरुद्ध है। परन्तु राष्ट्रिय आवश्यकता, महिमा और व्यक्ति के स्वास्थ्य की दृष्टि से सन्तान-निरोध अनुपादेय नहीं। अपितु उपादेय है। सन्तान निरोध के लिये ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ उपाय है।]