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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
सूक्त - प्रस्कण्वः
देवता - सुपर्णः, वृषभः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आपः सूक्त
दि॒व्यं सु॑प॒र्णं प॑य॒सं बृ॒हन्त॑म॒पां गर्भं॑ वृष॒भमोष॑धीनाम्। अ॑भीप॒तो वृ॒ष्ट्या त॒र्पय॑न्त॒मा नो॑ गो॒ष्ठे र॑यि॒ष्ठां स्था॑पयाति ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व्यम् । सु॒ऽप॒र्णम् । प॒य॒सम् । बृ॒हन्त॑म् । अ॒पाम् । गर्भ॑म् । वृ॒ष॒भम् । ओष॑धीनाम् । अ॒भी॒प॒त: । वृ॒ष्ट्या । त॒र्पय॑न्तम् । आ । न॒: । गो॒ऽस्थे । र॒यि॒ऽस्थाम् । स्था॒प॒य॒ति॒ ॥४०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दिव्यं सुपर्णं पयसं बृहन्तमपां गर्भं वृषभमोषधीनाम्। अभीपतो वृष्ट्या तर्पयन्तमा नो गोष्ठे रयिष्ठां स्थापयाति ॥
स्वर रहित पद पाठदिव्यम् । सुऽपर्णम् । पयसम् । बृहन्तम् । अपाम् । गर्भम् । वृषभम् । ओषधीनाम् । अभीपत: । वृष्ट्या । तर्पयन्तम् । आ । न: । गोऽस्थे । रयिऽस्थाम् । स्थापयति ॥४०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(दिव्यम्) दिण्यगुणों वाले, (सुपर्णम्) उत्तम पंखों वाले पक्षी के सदृश उड़ने वाले, (पयसम्) जलमय, (बृहन्तम्) महाकाय, (अपाम्, गर्भम्) जलों के गर्भ रूप (ओषधीनाम्, वृषभम्) औषधियों पर वर्षा करने वाले, (अभीपतः) सूर्य को अभिमुख करके उसके चारों ओर उड़ने वाले ग्रहों को (वृष्ट्या, तर्पयन्तम्) वृष्टि द्वारा तृप्त करने वाले, (रविष्ठाम्) सम्पत्ति के उत्पादनार्थ [अन्तरिक्ष में] स्थित [मेघ१ को], (नः गोष्ठे) हमारे गोशाला आदि स्थान में [परमेश्वर] (स्थापयाति) स्थापित करे, या करता है।
टिप्पणी -
[भौमजल की अपेक्षा मेघस्थ जल दिव्यगुणों वाला होता है, उसमें भौम पदार्थ मिश्रित नहीं होते, वह स्वच्छ होता है। अन्तरिक्ष में मेघस्थ जल वायु द्वारा इधर-उधर उड़ता रहता है। मेघ के कारण अन्नादि सम्पत्ति प्राप्त होती है। गोष्ठ पद उपलक्षक है निवास स्थान, खेत आदि का]। [१. पृथिवी से अतिरिक्त अन्य ग्रहों में भी बर्फ के रूप में जल की सत्ता है। प्रत्येक ग्रह का निज वैयक्तिक अन्तरिक्ष है, यहां स्थित मेघों द्वारा उन पर वृष्टि होती है, या हुई है।]