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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
कु॒हूर्दे॒वाना॑म॒मृत॑स्य॒ पत्नी॒ हव्या॑ नो अस्य ह॒विषो॑ जुषेत। शृ॑णोतु य॒ज्ञमु॑श॒ती नो॑ अ॒द्य रा॒यस्पोषं॑ चिकि॒तुषी॑ दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒हू: । दे॒वाना॑म् । अ॒मृत॑स्य । पत्नी॑ । हव्या॑ । न॒: । अ॒स्य॒ । ह॒विष॑: । जु॒षे॒त॒ । शृ॒णोतु॑ । य॒ज्ञम् । उ॒श॒ती । न॒: । अ॒द्य । रा॒य: । पोष॑म् । चि॒कि॒तुषी॑ । द॒धा॒तु॒ ॥४९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कुहूर्देवानाममृतस्य पत्नी हव्या नो अस्य हविषो जुषेत। शृणोतु यज्ञमुशती नो अद्य रायस्पोषं चिकितुषी दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठकुहू: । देवानाम् । अमृतस्य । पत्नी । हव्या । न: । अस्य । हविष: । जुषेत । शृणोतु । यज्ञम् । उशती । न: । अद्य । राय: । पोषम् । चिकितुषी । दधातु ॥४९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(देवानाम्) देवो में से (अमृतस्य) अमृत व्यक्ति की (पत्नी कुहूः) पत्नी कुहू है, (हव्या) सत्कारपूर्वक आह्वानीया है, (अद्य) इस समय (नः अस्य हविषः) हमारे इस हविष्यान्न का (जुषेत) सेवन करे, भोजन करे (शृणोतु) हमारी प्रार्थना को सुने (यज्ञमुशती) गृहस्थयज्ञ की कामना वाली, (चिकितुषी) तथा सम्यक्-ज्ञानवाली विदुषी, (नः) हमें (रायस्पोषम्) निज ज्ञानरूपी सम्पत्ति (दधातु) प्रदान करे।
टिप्पणी -
[कुहू के दो स्वरूप१ है, एक तो मन्त्र (१) में वर्णित गृहस्थ के कार्यों की विज्ञता, भोज्यान्न की व्यवस्था का करना, तथा सन्तानोत्पादन; और (मन्त्र २) में वर्णित जीवन्मुक्त की पत्नी का होना, अध्यात्मतत्त्वों का सम्यक-ज्ञानवाली होना, और इस ज्ञान सम्पति का दान करना तथा सन्तानोत्पत्ति से विरत रहना। दोनों प्रकार की "कुहू" पत्नियां पृथक्-पृथक पतियों के साथ विवाहयोग्या हैं]। [१. "कुहू" स्त्रियां द्विविधा है, गृहस्थ की प्रवृत्ति वाली, और अध्यात्मप्रवृत्ति वाली। विवाहित दोनों हैं। परन्तु प्रवृत्तिभेद है। जैसे कि याज्ञवल्क्य की स्त्रियां थीं, एक कात्यायनी और दूसरी गार्गी। दोनों में प्रवृत्तिभेद था (वृहदा० उपनिषद अ० ४। ब्रा० ५। कण्डिका १-१५)।]