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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒वे मा॒तरं॑ म॒हीमदि॑तिं॒ नाम॒ वच॑सा करामहे। यस्या॑ उ॒पस्थ॑ उ॒र्वन्तरि॑क्षं॒ सा नः॒ शर्म॑ त्रि॒वरू॑थं॒ नि य॑च्छात् ॥
स्वर सहित पद पाठवाज॑स्य । नु । प्र॒ऽस॒वे । मा॒तर॑म् । म॒हीम् । अदि॑तिम् । नाम॑ । वच॑सा । क॒रा॒म॒हे॒ । यस्या॑: । उ॒पऽस्थे॑ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । सा । न॒: । शर्म॑ । त्रि॒ऽवरू॑थम् । नि । य॒च्छा॒त् ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजस्य नु प्रसवे मातरं महीमदितिं नाम वचसा करामहे। यस्या उपस्थ उर्वन्तरिक्षं सा नः शर्म त्रिवरूथं नि यच्छात् ॥
स्वर रहित पद पाठवाजस्य । नु । प्रऽसवे । मातरम् । महीम् । अदितिम् । नाम । वचसा । करामहे । यस्या: । उपऽस्थे । उरु । अन्तरिक्षम् । सा । न: । शर्म । त्रिऽवरूथम् । नि । यच्छात् ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(वाजस्य) बल अर्थात् शक्ति के (नु) शीघ्र (प्रसवे) उत्पादन के निमित्त, (अदितिम् नाम) अदिति नाम वाली (महीम्, मातरम्) पूजनीया परमेश्वर माता को (वचसा) स्तुति प्रार्थना वचनों द्वारा (करामहे) हम स्वकीया करते हैं, अपनाते हैं। (यस्याः) जिसकी (उपस्थे) गोद में (उरू) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष है, (सा) वह अदिति-माता (नः) हमें (त्रिवरूथम्) तीन-गृहों व्यापी (शर्म) सुख (नियच्छात्) प्रदान करे।
टिप्पणी -
[वाजः बलनाम (निघं० २।९)। वरूथम् गृहनाम (निघं० ३।४)। त्रिवरूथम्= तीन गृह= कारण, सूक्ष्म, स्थूल शरीर, जो कि जीवात्माओं के निवास के लिये गृहरूप हैं। शर्म सुखनाम (निघं० ३।६)] (४)। तथा (वाजस्य) अन्न के (प्रसवे) उत्पादन के निमित्त (महीम्) महती (अदितिम्, मातरम्) पृथिवी माता को (वचसा) वेदोक्त विधि द्वारा (करामहे) अन्नोत्पादनयोग्या हम करते हैं। (यस्याः) जिस पृथिवी माता के (उपस्थे) उपस्थ में अर्थात् उस की समीप स्थिति में (उरू) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष है, (सा) वह पृथिवी-माता (त्रिवरूथम्) तीन मंजिलों वाला (शर्म) गृह (नः) हमें (नियच्छात्) प्रदान करे। [वाज: अन्ननाम (निघं० २।७)। अदितिः पृथिवीनाम (निघं० १।१)। शर्म गृहनाम (निघं० ३।४)। वरूथम् गृहनाम (निघं० ३।४)। वरूथम्= वृञ् आवरणे, आवृत, घिरा हुआ, इष्टकाचयन द्वारा दीवारों से घिरा हुआ गृह। "प्रसवे, उपस्थे" इन शब्दों द्वारा तथा अदिति के साथ अन्तरिक्ष के सम्बन्ध दर्शाने द्वारा, अदिति और अन्तरिक्ष में पत्नी-पतिभाव सूचित किया है। पतिरूप अन्तरिक्ष से वर्षाजल को, पुरुष शक्ति रूप में, निर्दिष्ट किया है, जिसे प्राप्त कर पत्नीरूप अदिति, अन्नरूपी सन्तान प्राप्त करती है। वेद में वर-वधू या पति-पत्नी के भाव को "द्यौः पृथिवी" द्वारा भी सूचित किया है। यथा “द्यौरहं पृथिवी त्वम्, ताविह सं भवाव, प्रजामा जनयावहै" (अथर्व० १४।७।७१)]।