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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
यद॑ग्ने॒ तप॑सा॒ तप॑ उपत॒प्याम॑हे॒ तपः॑। प्रि॒याः श्रु॒तस्य॑ भूया॒स्मायु॑ष्मन्तः सुमे॒धसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒ग्ने॒ । तप॑सा । तप॑: । उ॒प॒ऽत॒प्याम॑हे । तप॑: । प्रि॒या: । श्रु॒तस्य॑ । भू॒या॒स्म॒ । आयु॑ष्मन्त: । सु॒ऽमे॒धस॑: ॥६३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्ने तपसा तप उपतप्यामहे तपः। प्रियाः श्रुतस्य भूयास्मायुष्मन्तः सुमेधसः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अग्ने । तपसा । तप: । उपऽतप्यामहे । तप: । प्रिया: । श्रुतस्य । भूयास्म । आयुष्मन्त: । सुऽमेधस: ॥६३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 61; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अग्ने) हे ज्ञानाग्निसम्पन्न आचार्य (तपसा) तप की विधि के अनुसार (यत् तपः) जो तप (उपतप्यामहे) तेरे समीप रहकर हम करते हैं, उस द्वारा (श्रुतस्य) आप से श्रवण किये वेद के (प्रियाः) प्यारे (भूयास्म) हम हों, ताकि (आयुष्मन्तः) दीर्घ और स्वस्थ आयु वाले तथा (सुमेधसः) उत्तम मेधा वाले हम हों।
टिप्पणी -
[सूक्त ६३ का विनियोग उपनयन कर्म में हुआ है। योगदर्शन (२।३२) में “तपः और स्वाध्याय” को योगाङ्गभूत नियमों का अङ्ग कहा है। तथा तपः का फल कहा है "कायसिद्धिः" अणिमा आदि तथा "इन्द्रियसिद्धिः" दूरात् श्रवण, दर्शनादि। तप द्वारा रजस् और तमस् का क्षय हो जाने पर ये सिद्धियां प्राप्त होती हैं (योग २।४३) तप की विधि यथा “तच्च चित्त प्रसादनम् अबाधमानम् अनेन आसेवितव्यम् इति मन्यन्ते (क्रियायोग २।१)। अर्थात् 'तप उतना ही करना चाहिये जिस से शारीरिक धातुओं में वैषम्य पैदा न हो" (वाचस्पति)। तपः, द्वन्द्वसहनम् द्वन्द्वश्च शीतोष्णे, जिघत्सापिपासे आदि (योग २।३२)]।