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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
क॒स्ये मृ॑जाना॒अति॑ यन्ति रि॒प्रमायु॒र्दधा॑नाः प्रत॒रं नवी॑यः। आ॒प्याय॑मानाः प्र॒जया॒धने॒नाध॑ स्याम सुर॒भयो॑ गृ॒हेषु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठक॒स्यै । मृ॒जाना॑: । अति॑ । य॒न्ति॒ । रि॒प्रम् । आयु॑: । दधा॑ना : । प्र॒ऽत॒रम् । नवी॑य: । आ॒ऽप्याय॑माना: । प्र॒ऽजया॑ । धने॑न । अध॑ । स्या॒म॒ । सु॒र॒भय॑: । गृ॒हेषु॑ ॥३.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्ये मृजानाअति यन्ति रिप्रमायुर्दधानाः प्रतरं नवीयः। आप्यायमानाः प्रजयाधनेनाध स्याम सुरभयो गृहेषु ॥
स्वर रहित पद पाठकस्यै । मृजाना: । अति । यन्ति । रिप्रम् । आयु: । दधाना : । प्रऽतरम् । नवीय: । आऽप्यायमाना: । प्रऽजया । धनेन । अध । स्याम । सुरभय: । गृहेषु ॥३.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 17
विषय - (गृहस्थ खण्ड) सुरभिमय जीवन
शब्दार्थ -
(कस्ये) ज्ञान में (मृजानाः) अपनी आत्मा को शुद्ध करते हुए अत्युत्तम दीर्घ (नवीय:) नवीन (आयु:) जीवन को (दधानाः) धारण करते हुए (अध) और (रिप्रम्) मल को, पाप को, दोष को (अतियन्ति) दूर हटाते हुए (प्रजया) सुसन्तान से (धनेन) धनैश्वर्य से (आप्यायमाना:) बढ़ते हुए हम लोग (गृहेषु ) घरों में (सुरभयः) सुगन्धरूप, उत्तम, प्रशंसनीय गुणों से युक्त, सदाचारी (स्याम) होवें ।
भावार्थ - मनुष्यों के गृहस्थ-जीवन का इस मन्त्र में सुन्दर चित्रण है- १. प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान के द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध करना चाहिए । २. उत्तम और दीर्घ जीवन प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । ३. जीवन के पाप-ताप, दोष और मलों को धो डालना चाहिए । ४. सुसन्तान का निर्माण करना चाहिए । ५. धनैश्वर्यों का उपार्जन करना चाहिए। ६. प्रशंसनीय गुणों से युक्त होकर घर में अपने सदाचार की ! दिव्य-गन्ध फैलानी चाहिए ।
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