Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 19

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 6
    सूक्त - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त

    अस॒द्भूम्याः॒ सम॑भव॒त्तद्यामे॑ति म॒हद्व्यचः॑। तद्वै ततो॑ विधूपा॒यत्प्र॒त्यक्क॒र्तार॑मृच्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑त् । भूम्या॑: । सम् । अ॒भ॒व॒त् । तत् । याम् । ए॒ति॒ । म॒हत् । व्यच॑: । तत् । वै । तत॑: । वि॒ऽधू॒पा॒यत् । प्र॒त्यक् । क॒र्तार॑म् । ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असद्भूम्याः समभवत्तद्यामेति महद्व्यचः। तद्वै ततो विधूपायत्प्रत्यक्कर्तारमृच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असत् । भूम्या: । सम् । अभवत् । तत् । याम् । एति । महत् । व्यच: । तत् । वै । तत: । विऽधूपायत् । प्रत्यक् । कर्तारम् । ऋच्छतु ॥१९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 6

    शब्दार्थ -
    (असत्) असद् व्यवहार, पाप, अधर्म (भूम्या:) भूमि से (समभवत्) उत्पन्न होता है और (तत्) वह (महत् व्यचः) बड़े रूप में, अत्यन्त विकसित होकर (द्याम् एति) द्युलोक तक पहुँच जाता हैं फिर (तत:) वहाँ से (तत् वै) वह पाप निश्चयपूर्वक (विधूपायत्) सन्ताप देता हुआ, वज्ररूप में (प्रत्यक्) वापस लौटता हुआ (कर्तारम्) पापकर्म करनेवाले को (ऋच्छतु) आ पड़ता है ।

    भावार्थ - मन्त्र में पापकर्म-कर्ता का सुन्दर चित्र खींचा गया है - १. मनुष्य पाप करता है और समझता है किसीको पता नहीं चला । परन्तु यह बात नहीं है । पाप जहाँ से उत्पन्न होता है वही तक सीमित नहीं रहता अपितु शीघ्र ही सर्वत्र फैल जाता है । २. फैलकर पाप वहीं नहीं रह जाता अपितु पापी को कष्ट देता हुआ, उसके ऊपर वज्र-प्रहार करता हुआ वह पापी को ही लौट आता है । ३. पाप का फल पाप होता है और पुण्य का पुण्य । उन्नति के अभिलाषी मनुष्यों को चाहिए कि अपनी जीवन-भूमि से पाप, अधर्म, अन्याय और असद्-व्यवहार के बीजों को निकालकर पुण्य के अंकुर उपजाने का प्रयत्न करें ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top