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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - देवगणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त

    मह्यं॑ यजन्तां॒ मम॒ यानी॒ष्टाकू॑तिः स॒त्या मन॑सो मे अस्तु। एनो॒ मा नि गां॑ कत॒मच्च॑ना॒हं विश्वे॑ दे॒वा अ॒भि र॑क्षन्तु मे॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मह्य॑म् । य॒ज॒न्ता॒म् । मम॑ । यानि॑ । इ॒ष्टा । आऽकू॑ति: । स॒त्या । मन॑स: । मे॒ । अ॒स्तु॒। एन॑: । मा । नि । गा॒म् । क॒त॒मत् । च॒न । अ॒हम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒भि । र॒क्ष॒न्तु॒ । मा॒ । इ॒ह ॥३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मह्यं यजन्तां मम यानीष्टाकूतिः सत्या मनसो मे अस्तु। एनो मा नि गां कतमच्चनाहं विश्वे देवा अभि रक्षन्तु मेह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मह्यम् । यजन्ताम् । मम । यानि । इष्टा । आऽकूति: । सत्या । मनस: । मे । अस्तु। एन: । मा । नि । गाम् । कतमत् । चन । अहम् । विश्वे । देवा: । अभि । रक्षन्तु । मा । इह ॥३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 4

    शब्दार्थ -
    (मम) मेरे (यानि) जो (इष्टानि) इष्ट – इच्छत सुखदायक पदार्थ और किये हुए देवपूजन, सत्संग और दान आदि कार्य हैं वे (मह्यम्) मुझे (यजन्ताम्) प्राप्त हों। (मे मनसः) मेरे मन का (आकूति:) दृढ़-संकल्प (सत्या, अस्तु) सत्य हो (म्) मैं (कतमत् चन) किसी भी (एन:) पाप को (मा निगाम्) प्राप्त न होऊँ । (विश्वेदेवाः) विद्वान् लोग (इह) इस विषय में मेरी (अभि, रक्षन्तु) पूर्णरूप से रक्षा करें ।

    भावार्थ - मन्त्र में निम्न कामनाएँ प्रकट की गई हैं १. मेरे इच्छित सुखदायक पदार्थ मुझे प्राप्त होते रहें । २. मैं देवपूजा-सत्संग और दान इन यज्ञ कर्मों को सदा करता रहूँ, इनसे पृथक् न होऊँ । ३. मेरे मानसिक संकल्प सदा सत्य हों, मैं कभी असत्य संकल्प न करूँ । ४. मैं कभी भी कोई पापकर्म न करूँ । ५. ये सभी बातें कब सम्भव हैं ? जब विद्वान् लोग मेरी रक्षा करते रहें । जब मैं सुपथ को त्यागकर कुपथ की ओर प्रवृत्त होऊँ तब वे अपने सदुपदेशों से मेरी रक्षा करते रहें ।

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