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अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 7
अनु॑हूतः॒ पुन॒रेहि॑ वि॒द्वानु॒दय॑नं प॒थः। आ॒रोह॑णमा॒क्रम॑णं॒ जीव॑तोजीव॒तोऽय॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ऽहूत: । पुन॑: । आ । इ॒हि॒ । वि॒द्वान् । उ॒त्ऽअय॑नम् । प॒थ: । आ॒ऽरोह॑णम् । आ॒ऽक्रम॑णम् । जीव॑त:ऽजीवत: । अय॑नम् ॥३०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुहूतः पुनरेहि विद्वानुदयनं पथः। आरोहणमाक्रमणं जीवतोजीवतोऽयनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽहूत: । पुन: । आ । इहि । विद्वान् । उत्ऽअयनम् । पथ: । आऽरोहणम् । आऽक्रमणम् । जीवत:ऽजीवत: । अयनम् ॥३०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 7
विषय - उन्नति करना प्रत्येक का अधिकार
शब्दार्थ -
हे मानव ! (पथ:) मार्ग के (उत् अयनम्) चढ़ाव को (विद्वान्) जानता हुआ और (अनुहूतः) प्रोत्साहित किया हुआ तू (पुनः) फिर (एहि) इस पथ पर आरोहण कर क्योंकि (आरोहणम्) उन्नति करना (आक्रमणम्) आगे बढ़ना (जीवत: जीवत:) प्रत्येक जीव का, प्रत्येक मनुष्य का (अयनम्) मार्ग है, उद्देश्य है, लक्ष्य है ।
भावार्थ - मन्त्र में हारे-थके और निरुत्साही व्यक्ति के लिए एक दिव्य सन्देश है- १. हे मानव ! यदि तू प्रयत्न करके थक गया है तो क्या हुआ ! तू हतोत्साह मत हो । उत्साह के घट रीते मत होने दे । आशा को अपने जीवन का सम्बल बनाकर फिर इस मार्ग पर आरोहण कर । २. मार्ग की चढ़ाई को देखकर घबरा मत । सदा स्मरण रख कि तेरे लिए चढ़ाई का मार्ग ही नियत है । आशा और उत्साह से इस मार्ग पर आगे-ही-आगे बढ़ता जा । आगे बढ़ना, उन्नति करना ही जीवन-मार्ग है। पीछे हटना, अवनति करना मृत्यु-मार्ग है। पथ कठिन है तो क्या हुआ ! परीक्षा तो कठिनाई में ही होती है । ३. निराश और हताश होने की आवश्यकता नहीं। आगे बढ़, उन्नति कर, क्योंकि आगे बढ़ना और उन्नति करना प्रत्येक जीव का अधिकार है । प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति होगी । हाँ, उसके लिए बल लगाने की, पुरुषार्थ करने की तथा निराशा और दुर्बलता को मार भगाने की आवश्यकता है ।
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