अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - देवगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त
61
मह्यं॑ यजन्तां॒ मम॒ यानी॒ष्टाकू॑तिः स॒त्या मन॑सो मे अस्तु। एनो॒ मा नि गां॑ कत॒मच्च॑ना॒हं विश्वे॑ दे॒वा अ॒भि र॑क्षन्तु मे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठमह्य॑म् । य॒ज॒न्ता॒म् । मम॑ । यानि॑ । इ॒ष्टा । आऽकू॑ति: । स॒त्या । मन॑स: । मे॒ । अ॒स्तु॒। एन॑: । मा । नि । गा॒म् । क॒त॒मत् । च॒न । अ॒हम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒भि । र॒क्ष॒न्तु॒ । मा॒ । इ॒ह ॥३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
मह्यं यजन्तां मम यानीष्टाकूतिः सत्या मनसो मे अस्तु। एनो मा नि गां कतमच्चनाहं विश्वे देवा अभि रक्षन्तु मेह ॥
स्वर रहित पद पाठमह्यम् । यजन्ताम् । मम । यानि । इष्टा । आऽकूति: । सत्या । मनस: । मे । अस्तु। एन: । मा । नि । गाम् । कतमत् । चन । अहम् । विश्वे । देवा: । अभि । रक्षन्तु । मा । इह ॥३.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
रक्षा के उपाय का उपदेश।
पदार्थ
(मम) मेरे (यानि) पाने योग्य (इष्टा=इष्टानि) इष्ट कर्म (मह्यम्) मुझ को (यजन्ताम्) मिलें, (मे) मेरे (मनसः) मनका (आकूतिः) संकल्प (सत्या) सत्य (अस्तु) होवे। (अहम्) मैं (कतमच्चन) किसी भी (एनः) पाप कर्म को (मा नि गाम्) कभी न प्राप्त होऊँ, (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम गुण (मा) मेरी (इह) इस विषय में (अभि) सब ओर से (रक्षन्तु) रक्षा करें ॥४॥
भावार्थ
मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण से विचारपूर्वक शुभ कर्मों को प्रतिज्ञा करके पूरा करें, और छल कपट आदि पाप छोड़ कर सब उत्तम-उत्तम गुण प्राप्त करें ॥४॥
टिप्पणी
४−(मह्यम्) मदर्थम् (यजन्ताम्) संगच्छन्ताम् (मम) (यानि) या गतौ−ड। प्राप्तव्यानि (इष्टा) इष्टानि कर्माणि (आकूतिः) संकल्पः। मनोरथः (सत्या) यथार्था (मनसः) अन्तःकरणस्य (मे) मम (अस्तु) (एनः) अ० २।१०।८। पापम् (मा गाम्) एतेर्माङि लुङि रूपम्। मा गच्छेयम् (नि) नितराम् (कतमत् चन) किमपि (अहम्) उपासकः (विश्वे) सर्वे (देवाः) उत्तमगुणाः (अभि) सर्वतः (रक्षन्तु) पालयन्तु (मा) माम् (इह) अस्मिन् मनोरथे ॥
विषय
शुभ संकल्प
पदार्थ
१. (मम) = मेरे (यानि) = जो (इष्टा) = अभिलषित पदार्थ व यज्ञादि उत्तम कर्म हैं, वे (मह्यम् यजन्ताम्) = मेरे लिए संगत हों-मुझे इष्ट पदार्थों व उत्तम कर्मों की प्राप्ति हो। (मे) = मेरे (मनस:) = मन का (आकृति:) = संकल्प (सत्या अस्तु) = सत्य हो। मैं कभी असत्य संकल्पोंवाला न बने। २. (अहम्) = मैं (कतमत् चन) = किसी भी एनः पाप को (मा निगाम) = प्राप्त न हो। (विश्वेदेवाः) = सब दिव्यगुण इह-यहाँ, इस जीवन में (मा अभिरक्षन्तु) = मेरा रक्षण करें।
भावार्थ
हमें सब इष्ट वस्तुएँ प्राप्त हों। हमारे संकल्प उत्तम हों। हम पाप से दूर रहें और दिव्य गुण हमारे रक्षक हों।
भाषार्थ
(मम) मेरे (यानि) जो (इष्टा=इष्टानि) अभीष्ट हैं वे (मह्यम्) मेरे लिए (यजन्ताम्) सुसंगत हों, सुसम्पादित हों, (मे मनसः आकूतिः) मेरे मन का संकल्प (सत्य अस्तु) सत्य हो जाए, पूरा हो जाए। (कतमत् चन) किसी भी (एनः) हत्या को ( अहम्) मैं ( मा निगम ) न प्राप्त होऊं, (विश्वे देवाः) साम्राज्य के सब देव ( इह) इस युद्ध में ( मा) मुझे (अभि-रक्षन्तु) सब प्रकार से सुरक्षित करें।
टिप्पणी
[सोम-राजा की उक्ति है ( मन्त्र ७) । एन: = एते:, (निरुक्त ११।३।२४) पाप; जोकि फलभोग कराने के लिए अवश्य पापी को प्राप्त होता है । अभिप्राय यह कि युद्धकर्म में मुझसे ऐसा कोई पाप न हो जाए जिसके परिणाम में मुझे साम्राज्य-दण्ड "हत्या" प्राप्त करनी पड़े।]
विषय
पाप-निवारण के उपाय
शब्दार्थ
(मम) मेरे (यानि) जो (इष्टानि) इष्ट – इच्छत सुखदायक पदार्थ और किये हुए देवपूजन, सत्संग और दान आदि कार्य हैं वे (मह्यम्) मुझे (यजन्ताम्) प्राप्त हों। (मे मनसः) मेरे मन का (आकूति:) दृढ़-संकल्प (सत्या, अस्तु) सत्य हो (म्) मैं (कतमत् चन) किसी भी (एन:) पाप को (मा निगाम्) प्राप्त न होऊँ । (विश्वेदेवाः) विद्वान् लोग (इह) इस विषय में मेरी (अभि, रक्षन्तु) पूर्णरूप से रक्षा करें ।
भावार्थ
मन्त्र में निम्न कामनाएँ प्रकट की गई हैं १. मेरे इच्छित सुखदायक पदार्थ मुझे प्राप्त होते रहें । २. मैं देवपूजा-सत्संग और दान इन यज्ञ कर्मों को सदा करता रहूँ, इनसे पृथक् न होऊँ । ३. मेरे मानसिक संकल्प सदा सत्य हों, मैं कभी असत्य संकल्प न करूँ । ४. मैं कभी भी कोई पापकर्म न करूँ । ५. ये सभी बातें कब सम्भव हैं ? जब विद्वान् लोग मेरी रक्षा करते रहें । जब मैं सुपथ को त्यागकर कुपथ की ओर प्रवृत्त होऊँ तब वे अपने सदुपदेशों से मेरी रक्षा करते रहें ।
विषय
बल और विजय की प्रार्थना।
भावार्थ
(मम यानि इष्टानि) मेरे जो इष्ट = अभिलषित सुखदायक पदार्थ और यज्ञ कर्म हैं वे (मह्यं) मुझे (यजन्ताम्) प्राप्त हों। और (मे मनसः) मेरे मन का (आ-कूतिः) दृढ़ संकल्प (सत्या अस्तु) सत्य हो। (अहं) मैं (कतमत् चन) किसी भी (एनः) पाप को (मा निगाम्) प्राप्त न होऊं। (विश्वे देवाः) समस्त देवगण विद्वान् अधिकारी पुरुष (मा) मेरी (इह) यहां (रक्षन्तु) रक्षा करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहद्दिवो अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १, ३-९ त्रिष्टुप्। १० विराड् जगती। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Strength and Victory
Meaning
May success come to me in all I desire to perform. May all purposes, intentions and resolutions of mind be true and fruitful. May I never come to think of any sin or evil whatever against the self or society or nature or Divinity. May all divinities of nature and humanity, all my faculties of mind and sense protect and help in this battle of life here and now.
Translation
Whatever are pleasing to me, let those be offered to me. Let the intense wish of my heart come true. May I not be addicted to any vice. May all the bounties of Nature protect me here from all the sides. (Also Rg. X.128.4)
Translation
Let my good cherished ends whatever be they, visit me and let the intention of my mind be accomplished. May I not commit any transgression and al] the learned men and physical forces Protect me here.
Translation
Let all my resolves be fulfilled, and let my mind's intention be accomplished. May I be guiltless of the least transgression: may all noble virtues protect me here.
Footnote
Here: In the battle.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(मह्यम्) मदर्थम् (यजन्ताम्) संगच्छन्ताम् (मम) (यानि) या गतौ−ड। प्राप्तव्यानि (इष्टा) इष्टानि कर्माणि (आकूतिः) संकल्पः। मनोरथः (सत्या) यथार्था (मनसः) अन्तःकरणस्य (मे) मम (अस्तु) (एनः) अ० २।१०।८। पापम् (मा गाम्) एतेर्माङि लुङि रूपम्। मा गच्छेयम् (नि) नितराम् (कतमत् चन) किमपि (अहम्) उपासकः (विश्वे) सर्वे (देवाः) उत्तमगुणाः (अभि) सर्वतः (रक्षन्तु) पालयन्तु (मा) माम् (इह) अस्मिन् मनोरथे ॥
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