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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 86/ मन्त्र 2
स॑मु॒द्र ई॑शे स्र॒वता॑म॒ग्निः पृ॑थि॒व्या व॒शी। च॒न्द्रमा॒ नक्ष॑त्राणामीशे॒ त्वमे॑कवृ॒षो भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्र: । ई॒शे॒ । स्र॒वता॑म् । अ॒ग्नि: । पृ॒थि॒व्या:। व॒शी । च॒न्द्रमा॑: । नक्ष॑त्राणाम् । ई॒शे॒ । त्वम् । ए॒क॒ऽवृ॒ष: । भ॒व॒ ॥८६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्र ईशे स्रवतामग्निः पृथिव्या वशी। चन्द्रमा नक्षत्राणामीशे त्वमेकवृषो भव ॥
स्वर रहित पद पाठसमुद्र: । ईशे । स्रवताम् । अग्नि: । पृथिव्या:। वशी । चन्द्रमा: । नक्षत्राणाम् । ईशे । त्वम् । एकऽवृष: । भव ॥८६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 86; मन्त्र » 2
विषय - सर्वश्रेष्ठ बन
शब्दार्थ -
(स्रवताम्) बहनेवाले जलों, नली-नालों पर (समुद्रः) समुद्र (ईशे) शासन करता है (पृथिव्याः) पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाले पदार्थों को (अग्नि:) अग्नि ( वशी) वश में किये हुए है (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों में (चन्द्रमा) चन्द्रमा (ईशे) सबपर शासन करता है, उन्हें अपने तेज से दबा लेता है, उसी प्रकार हे मनुष्य ! तू सम्पूर्ण प्राणियों में (एक-वृष:) एकमात्र सर्वश्रेष्ठ (भव) बन, बनने का प्रयत्न कर ।
भावार्थ - १. बहनेवाले नदी-नालों को देखिये और समुद्र के ऊपर एक दष्टि डालिए । समुद्र अपनी विशालता, गहनता, गम्भीरता और महान् जलराशि के कारण सभी नदी-नालों पर शासन करता है । समुद्र सभी नदी-नालों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। २. अपने तेज और दाहक शक्ति के कारण अग्नि सारी पृथिवी को, पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाली सभी वनस्पतियों को अपने वश में रखता है । ३. प्रकाश में करोड़ों तारे टिमटिमाते हैं, चन्द्रमा अपने तेज से उन सबको दबाकर उनपर शासन करता है । वेद इन तीन दृष्टान्तों को मनुष्य के सम्मुख रखकर उसे उद्बोधन देते हुए कहता है, जिस प्रकार नदियों में समुद्र सर्वश्रेष्ठ है, जिस प्रकार पृथिवी पर अग्नि सबपर शासन करती है, नक्षत्रों में जिस प्रकार चन्द्रमा सर्वश्रेष्ठ है । हे मानव ! तू भी इसी प्रकार सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ बनने का प्रयत्न कर ।
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