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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 69/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - बृहस्पतिः, अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चस् प्राप्ति सूक्त
मयि॒ वर्चो॒ अथो॒ यशोऽथो॑ य॒ज्ञस्य॒ यत्पयः॑। तन्मयि॑ प्र॒जाप॑तिर्दि॒वि द्यामि॑व दृंहतु ॥
स्वर सहित पद पाठमयि॑ । वर्च॑: । अथो॒ इति॑ । यश॑: । अथो॒ इति॑ । य॒ज्ञस्य॑ । यत् । पय॑: । तत् । मयि॑ । प्र॒जाऽप॑ति: । दि॒वि । द्याम्ऽइ॑व । दृं॒ह॒तु॒ ॥६९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
मयि वर्चो अथो यशोऽथो यज्ञस्य यत्पयः। तन्मयि प्रजापतिर्दिवि द्यामिव दृंहतु ॥
स्वर रहित पद पाठमयि । वर्च: । अथो इति । यश: । अथो इति । यज्ञस्य । यत् । पय: । तत् । मयि । प्रजाऽपति: । दिवि । द्याम्ऽइव । दृंहतु ॥६९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 69; मन्त्र » 3
विषय - उत्तम कर्म ही करूँ
शब्दार्थ -
(परमेष्ठी) परमोत्तम स्थान पर स्थित परमात्मा (प्रजापतिः) सर्वप्रजा का पालक जिस प्रकार तू (दिवि) द्युलोक में (द्याम्) द्युति, प्रकाश को, सूर्य को स्थिर रखता है (इव) इसी प्रकार (मयि) मुझ उपासक में (वर्च:) ब्रह्मतेज-बल, कान्ति (अथो) और (यश:) कीर्ति (अथो) और (यज्ञस्य) उत्कृष्ट कर्मों की (यत्) जो (पय:) वृद्धि है उसको (दृंहतु) दृढ़ कर, बढ़ा ।
भावार्थ - परमात्मा परमोत्तम स्थान पर स्थित है। वह हमें भी ऐसा बल और शक्ति प्रदान करे कि हम भी संसार में परमोत्तम स्थान प्राप्त करने में समर्थ हो सकें । परमात्मा सबका पालक, पोषक और रक्षक हैं । वेद में अन्यत्र कहा भी है – ‘विश्वं शृणोति पश्यति’ (ऋ० ८। ७८ । ५) वह सबकी सुनता है और सबको देखता है; अतः भक्त परमात्मा से प्रार्थना करता है — प्रभो ! जिस प्रकार आपने सूर्य को द्युलोक में स्थित कर रक्खा है, इसी प्रकार मुझ उपासक में भी निम्न गुणों को स्थिर और दृढ़ कीजिए - १. मैं बल, कान्ति और तेज से युक्त बनूँ । २. संसार में मेरी कीर्ति हो । ३. मैं सदा परोपकार, परसेवा आदि उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ कर्मों को ही करता रहूँ ।
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