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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 66

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 66/ मन्त्र 3
    सूक्त - विश्वमनाः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६६

    वेत्था॒ हि निरृ॑तीनां॒ वज्र॑हस्त परि॒वृज॑म्। अह॑रहः शु॒न्ध्युः प॑रि॒पदा॑मिव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेत्थ॑ । हि । नि:ऽऋ॑तीनाम् । वज्र॑ऽहस्त ।‍ प॒रि॒ऽवृज॑म् ॥ अह॑:ऽअह: । शु॒न्ध्यु: । प॒रि॒पदा॑म्ऽइव ॥६६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेत्था हि निरृतीनां वज्रहस्त परिवृजम्। अहरहः शुन्ध्युः परिपदामिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेत्थ । हि । नि:ऽऋतीनाम् । वज्रऽहस्त ।‍ परिऽवृजम् ॥ अह:ऽअह: । शुन्ध्यु: । परिपदाम्ऽइव ॥६६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 66; मन्त्र » 3

    भाषार्थ -
    (বজ্রহস্ত) হে বজ্রপাণি! (হি) নিশ্চয় পূর্বক (পরিপদাম্) বিপত্তি সমূহের (শুন্ধ্যুঃ ইব) শোধকের ন্যায় (অহরহঃ) প্রতিদিনের (নির্ঋতীনাম্) মহাবিপত্তি (পরিবৃজম্) নিবারণ করতে (বেত্থ) তুমি জানো ॥৩॥

    भावार्थ - যে মনুষ্য বীর পরাক্রমীর ন্যায় বিঘ্ন সমূহ দূর করে প্রজাদের রক্ষা করে, সমস্ত লোক/প্রজা তাঁর আদর-সম্মান করে॥৩॥ইতি পঞ্চমোঽনুবাকঃ ॥

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