अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
प्रा॑णापा॒नौ व्री॑हिय॒वाव॑न॒ड्वान्प्रा॒ण उ॑च्यते। यवे॑ ह प्रा॒ण आहि॑तोऽपा॒नो व्री॒हिरु॑च्यते ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णा॒पा॒नौ । व्री॒हि॒ऽय॒वौ । अ॒न॒ड्वान् । प्रा॒ण: । उ॒च्य॒ते॒ । यवे॑ । ह॒ । प्रा॒ण: । आऽहि॑त: । अ॒पा॒न: । व्री॒हि: । उ॒च्य॒ते॒ ॥६.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणापानौ व्रीहियवावनड्वान्प्राण उच्यते। यवे ह प्राण आहितोऽपानो व्रीहिरुच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणापानौ । व्रीहिऽयवौ । अनड्वान् । प्राण: । उच्यते । यवे । ह । प्राण: । आऽहित: । अपान: । व्रीहि: । उच्यते ॥६.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
मन्त्रार्थ -
(प्राणापानौ व्रीहियवौ अनड्वान् प्राणः उच्यते) प्राण के दो श्वास उच्छ्वास धर्म व्रीहि-चावल और यव-जी हैं । प्राणमुख्य प्राण वृषभ है-वैल है (यवे ह प्राणः-आहितः-अपानः व्रीहि:-उच्यते) यव में प्राण रखा है प्राणनशक्ति है और पान व्रीहि कहा जाता है । जैसे बैल भूमि को गाहकर धान और जौ को उत्पन्न- प्रकट करता है ऐसे प्राण भी श्वास और उच्छ्वास प्रकट करता है । खेती अथवा खेत में ये दो अन्न पवित्र यज्ञिय माने जाते हैं इसी प्रकार शरीर की सिरात्रों में श्वास और उच्छ वास का प्रवाह प्राण द्वारा चलता है । शरीर के अन्य अङ्ग या रस रक्तादि प्रवाह तो श्रमेध्य हैं परन्तु ये श्वास उच्छ्वास मेध्य हैं पवित्र हैं इनका आहार प्राण निरन्तर जीवात्मा को देता रहता है ॥१३॥
विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
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