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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    59

    प्रा॑णापा॒नौ व्री॑हिय॒वाव॑न॒ड्वान्प्रा॒ण उ॑च्यते। यवे॑ ह प्रा॒ण आहि॑तोऽपा॒नो व्री॒हिरु॑च्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णा॒पा॒नौ । व्री॒हि॒ऽय॒वौ । अ॒न॒ड्वान् । प्रा॒ण: । उ॒च्य॒ते॒ । यवे॑ । ह॒ । प्रा॒ण: । आऽहि॑त: । अ॒पा॒न: । व्री॒हि: । उ॒च्य॒ते॒ ॥६.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणापानौ व्रीहियवावनड्वान्प्राण उच्यते। यवे ह प्राण आहितोऽपानो व्रीहिरुच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणापानौ । व्रीहिऽयवौ । अनड्वान् । प्राण: । उच्यते । यवे । ह । प्राण: । आऽहित: । अपान: । व्रीहि: । उच्यते ॥६.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्राणापानौ) प्राण और अपान [श्वास और प्रश्वास] (व्रीहियवौ) चावल और जौ [के समान पुष्टिकारक] हैं, (प्राणः) प्राण [जीवनदाता परमेश्वर] (अनड्वान्) जीवन का चलानेवाला (उच्यते) कहा जाता है। (यवे) जौ में (ह) भी (प्राणः) प्राण [श्वासवायु] (आहितः) रक्खा हुआ है, (अपानः) अपान [प्रश्वास वायु] (व्रीहिः) चावल (उच्यते) कहा जाता है ॥१३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने प्राणियों के भीतर श्वास-प्रश्वास को चावल जौ अन्न आदि के समान पुष्टिकारक बनाया है ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(प्राणापानौ) प्राणस्य वृत्तिविशेषौ। श्वासप्रश्वासौ (व्रीहियवौ) अ० ६।१४०।२। अन्नविशेषौ (अनड्वान्) अ० ४।११।१। अनः+वह प्रापणे-क्विप्। अनसो जीवनस्य वाहकः संचालकः (प्राणः) (उच्यते) (यवे) (ह) एव (आहितः) स्थापितः (अपानः) प्रश्वासः (व्रीहिः) (उच्यते) ॥

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    विषय

    व्रीहि+यव-अपान+प्राण

    पदार्थ

    १. इस संसार में (व्रीहि) = (यवौ) = चावल और जौ (प्राणापानौ) = प्राण और अपान हैं। (यवे) = जौ में (ह) = निश्चय से (प्राण: आहित:) = प्राणशक्ति स्थापित हुई है और (व्रीहि) = चावल (अपानः उच्यते) = अपान कहा जाता है-सब दोषों का अपनयन करनेवाला है। २. वस्तुत: (प्राण:) = प्राण ही (अनड्वान) = [अनसः जीवनस्य वाहक:]-जीवन-शकट का वहन करनेवाला (उच्यते) = कहा जाता है। 'अपान' आदि सब मुख्यप्राण के ही अवान्तर रूप हैं।

    भावार्थ

    प्राणात्मा प्रभु ने जीवन-शकट के वहन के लिए शरीर में प्राणापान की स्थापना की है। इनके पोषण के लिए प्रभु ने 'यव व व्रीहि' नामक धान्यों को प्राप्त कराया है।

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    भाषार्थ

    (व्रीहियवौ) व्रीहि अर्थात् धान, और जौं (प्राणापानौ) प्राण और अपान हैं, (अनड्वान्) गाड़ी का वहन करने में समर्थ बैल (प्राणः उच्यते) प्राण कहा जाता है। (यवे ह्) जौ में (प्राणः आहितः) प्राण की स्थिति है, (व्रीहिः) धान (अपानः उच्यते) अपान कहा जाता है।

    टिप्पणी

    [व्रीहि = धान, जिस के भीतर तण्डुल होता है। शकट या गाड़ी के वहन में समर्थ बैल कृष्युत्पादक होने के कारण प्राण कहा जाता है, क्योंकि बैल की सहायता से खेत के जूत जाने के पश्चात् बीजावाप से व्रीहि और यव पैदा होते हैं। व्रीहि और यव के सेवन से प्राण और अपान की क्रियाएं ठीक होने लगती है। व्रीहि और यव सुपाच्य हैं, अतः स्वास्थ्यकारी है]।

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (प्राणापानौ ब्रीहियवौ) प्राण और अपान इन दोनों के वेद के शब्दों में ‘ब्रीहि’ और ‘यत्र’ नाम से कहा जाता है। (प्राण अनड्वान् उच्यते) वह पूर्वोक्त सर्व जीवनप्रद प्राण ‘अनड्वान्’ शब्द से कहा जाता है। (यवे ह प्राण आहितः) ‘यव’ में प्राण स्थित है। और (अपानः ब्रीहिः उच्यते) अपान ‘ब्रीहि’ कहाता है। और शब्द से कहने योग्य वह शक्ति जो संसार में पञ्चभूतों को परस्पर मिलाता है वह प्राण है और जो पुष्ट करता है वह ब्रीहि अपान है। और शरीर में भी प्राण यव है और अपान ब्रीहि है।

    टिप्पणी

    (तु०) ‘यवेन प्राण’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (प्राणापानौ व्रीहियवौ अनड्वान् प्राणः उच्यते) प्राण के दो श्वास उच्छ्वास धर्म व्रीहि-चावल और यव-जी हैं । प्राणमुख्य प्राण वृषभ है-वैल है (यवे ह प्राणः-आहितः-अपानः व्रीहि:-उच्यते) यव में प्राण रखा है प्राणनशक्ति है और पान व्रीहि कहा जाता है । जैसे बैल भूमि को गाहकर धान और जौ को उत्पन्न- प्रकट करता है ऐसे प्राण भी श्वास और उच्छ्वास प्रकट करता है । खेती अथवा खेत में ये दो अन्न पवित्र यज्ञिय माने जाते हैं इसी प्रकार शरीर की सिरात्रों में श्वास और उच्छ वास का प्रवाह प्राण द्वारा चलता है । शरीर के अन्य अङ्ग या रस रक्तादि प्रवाह तो श्रमेध्य हैं परन्तु ये श्वास उच्छ्वास मेध्य हैं पवित्र हैं इनका आहार प्राण निरन्तर जीवात्मा को देता रहता है ॥१३॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    Prana is the breath of life and life’s cleansing force, Prana is rice, Prana is barley, and Prana is called the burden bearer of the world. Prana is concentrated in barley, and apana is called the rice grain.

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    Translation

    Breath and expiration are rice and barley; breath is called the draft-ox; breath is set in barley; expiration is called rice.

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    Translation

    The inhaling and exhaling breath are called rice and barley. Prana is called Anadwan, the most powerful thing. The Prana is laid in barley and Apana in the rice.

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    Translation

    Both breaths are strength infusing like rice and barley. God draws the chariot of our life as a bullock the cart. The power of God, that keeps in tact the five elements is hidden beneath them. It is the power of God that develops and strengthens them.

    Footnote

    Yava: The power of God that keeps in tact the five elements. Brihi: The power of God that develops and strengthens them. Five elements: Air, Water, Fire, Earth, Space.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(प्राणापानौ) प्राणस्य वृत्तिविशेषौ। श्वासप्रश्वासौ (व्रीहियवौ) अ० ६।१४०।२। अन्नविशेषौ (अनड्वान्) अ० ४।११।१। अनः+वह प्रापणे-क्विप्। अनसो जीवनस्य वाहकः संचालकः (प्राणः) (उच्यते) (यवे) (ह) एव (आहितः) स्थापितः (अपानः) प्रश्वासः (व्रीहिः) (उच्यते) ॥

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