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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    107

    यत्प्रा॒ण स्त॑नयि॒त्नुना॑भि॒क्रन्द॒त्योष॑धीः। प्र वी॑यन्ते॒ गर्भा॑न्दध॒तेऽथो॑ ब॒ह्वीर्वि जा॑यन्ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । प्रा॒ण: । स्त॒न॒यि॒त्नुना॑ । अ॒भि॒ऽक्रन्द॑ति । ओष॑धी: । प्र । वी॒य॒न्ते॒ । गर्भा॑न् । द॒ध॒ते॒ । अथो॒ इति॑ । ब॒ह्वी: । वि । जा॒य॒न्ते॒ ॥६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्प्राण स्तनयित्नुनाभिक्रन्दत्योषधीः। प्र वीयन्ते गर्भान्दधतेऽथो बह्वीर्वि जायन्ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । प्राण: । स्तनयित्नुना । अभिऽक्रन्दति । ओषधी: । प्र । वीयन्ते । गर्भान् । दधते । अथो इति । बह्वी: । वि । जायन्ते ॥६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (प्राणः) प्राण [जीवनदाता परमेश्वर] (स्तनयित्नुना) बादल की गर्जन द्वारा (ओषधीः) ओषधियों [अन्न आदि को] (अभिक्रन्दति) बल से पुकारता है, [तब] वे (प्र) अच्छे प्रकार (वीयन्ते) गर्भवती होती हैं और (गर्भान्) गर्भों को (दधते) पुष्ट करती हैं, (अथो) फिर ही (बह्वीः) बहुत सी होकर (वि जायन्ते) उत्पन्न हो जाती हैं ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर के सामर्थ्य से सूर्य द्वारा मेघ से वर्षा और गर्जन होकर ग्रामों और वनों में अनेक ओषधें उगती हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यत्) यदा (प्राणः) म० १। जीवनदाता परमेश्वरः (स्तनयित्नुना) मेघध्वनिना (अभिक्रन्दति) सर्वत आह्वयति (ओषधीः) व्रीहियवाद्या वीरुधः (प्र) प्रकर्षेण (वीयन्ते) वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु। गर्भं गृह्णन्ति (गर्भान्) उदरस्थपदार्थान् (दधते) पोषयन्ति (अथो) अनन्तरमेव (बह्वीः) बह्व्यो बहुप्रकाराः (वि जायन्ते) विविधमुत्पद्यन्ते ॥

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    विषय

    सूर्यात्मा प्रभु

    पदार्थ

    १. (यत्) = [यदा] जब (प्राण:) = जगत् प्राणभूत सूर्यात्मक देव (स्तनयितना) = मेघध्वनि से (ओषधी: अभिक्रन्दति-व्रीहि) = यवादि ग्राम्य व आरण्य लताओं के प्रति शब्द करता है, तब वे ओषधियाँ (प्रवीयन्ते) = प्राणाभिक्रन्दनमात्र से ही गर्भ को ग्रहण करती हैं-प्रजननाभिमुख होती हैं। वर्षाऋतु सब ओषधियों के गर्भग्रहण का काल है ही, तब ये ओषधियों (गर्भान् दधते) = गों को धारण करती हैं। (अथो) = तदनन्तर (बह्वि) = बहुत प्रकारोंवाली (विजायन्ते) = उत्पन्न होती हैं।

    भावार्थ

    सुर्य व मेघ आदि में प्राणरूप से स्थित प्रभु मानो ओषधियों का लक्ष्य करके मेघध्वनि से शब्द करते हैं। तब प्रजननाभिमुख हुई-हुई ये ओषधियाँ गर्भग्रहण करती हैं और विविधरूपों में प्रादुर्भूत हो जाती हैं।

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    भाषार्थ

    (यत्) जब (प्राणः) प्राण (स्तनयित्नुना) गर्जन द्वारा (ओषधीः) ओषधियों को (अभि) लक्ष्य कर के (क्रन्दति) नाद या ध्वनि करता है, तब ओषधियां (प्रवीयन्ते) उत्पत्ति के अभिमुख होती हैं, (गर्भान् दधते) गर्भ धारण करती हैं, (अधो) तत्पश्चात् (बह्वीः) बहुत या बहुविधरूप में (विजायन्ते) पैदा होती हैं ।

    टिप्पणी

    [मन्त्र दो में प्राण को ही स्तनयित्नु कहा है। परन्तु मन्त्र तीन में स्तनयित्नु को प्राण का साधन कहा है, प्राणरूप नहीं। अतः प्राण और स्तनयित्नु भिन्न भिन्न हैं]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    When Prana with thunder and lightning roars, herbs are animated and fertilised, they bear the embryo of life, grow and are born manifold.

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    Translation

    When breath with thunder roars at the herbs they are impregnated (pra-vi), they receive embryos, then they are born many.

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    Translation

    When this Prana through thunder roars towards the herbaceous plants, the herbs gain strength, become pregnant with vitality and grow exuberantly.

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    Translation

    When God shouts His loud message to the plants through the thunderous cloud, they straightway impregnate, they conceive, and bear abundantly.

    Footnote

    They: Plants. Rainy season is the time when plants grow abundantly.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यत्) यदा (प्राणः) म० १। जीवनदाता परमेश्वरः (स्तनयित्नुना) मेघध्वनिना (अभिक्रन्दति) सर्वत आह्वयति (ओषधीः) व्रीहियवाद्या वीरुधः (प्र) प्रकर्षेण (वीयन्ते) वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु। गर्भं गृह्णन्ति (गर्भान्) उदरस्थपदार्थान् (दधते) पोषयन्ति (अथो) अनन्तरमेव (बह्वीः) बह्व्यो बहुप्रकाराः (वि जायन्ते) विविधमुत्पद्यन्ते ॥

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