अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
76
प्राण॒ मा मत्प॒र्यावृ॑तो॒ न मद॒न्यो भ॑विष्यसि। अ॒पां गर्भ॑मिव जी॒वसे॒ प्राण॑ ब॒ध्नामि॑ त्वा॒ मयि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्राण॑ । मा । मत् । प॒रि॒ऽआवृ॑त: । न । मत् । अ॒न्य: । भ॒वि॒ष्य॒सि॒ । अ॒पाम् । गर्भ॑म्ऽइव । जी॒वसे॑ । प्राण॑ । ब॒ध्नामि॑ । त्वा॒ । मयि॑ ॥६.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राण मा मत्पर्यावृतो न मदन्यो भविष्यसि। अपां गर्भमिव जीवसे प्राण बध्नामि त्वा मयि ॥
स्वर रहित पद पाठप्राण । मा । मत् । परिऽआवृत: । न । मत् । अन्य: । भविष्यसि । अपाम् । गर्भम्ऽइव । जीवसे । प्राण । बध्नामि । त्वा । मयि ॥६.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
प्राण की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] (मत्) मुझ से (पर्यावृतः) पृथक् वर्तमान (मा) मत [हो] तू, (मत्) मुझ से (अन्यः) अन्य (न भविष्यसि) न होगा। (प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] (अपाम्) प्राणियों [वा जल] के (गर्भम् इव) गर्भ के समान (त्वा) तुझको (जीवसे) [अपने] जीवन के लिये (मयि) अपने में (बध्नामि) बाँधता हूँ ॥२६॥
भावार्थ
जैसे गर्भ प्राणियों में और अग्नि, जल के भीतर चेष्टा करता है, वैसे ही मनुष्य परमात्मा को हृदय में धारण करके उन्नति करे ॥२६॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
२६−(प्राण) हे प्राणप्रद परमेश्वर (मा) निषेधे (मत्) मत्तः (पर्यावृतः) वृञ् वरणे-क्त। पृथग् वेष्टितः (न) निषेधे (मत्) (अन्यः) पृथग्भूतः (भविष्यसि) (अपाम्) प्राणिनाम्। जलानां वा (गर्भम्) उदरस्थं सन्तानम्, गर्भवद् वर्तमानं जलं वा (इव) यथा (जीवसे) जीवनाय (प्राण) (बध्नामि) धरामि (त्वा) त्वाम् (मयि) आत्मीये ॥
विषय
अपां गर्भम् इव
पदार्थ
१. हे (प्राण) = प्राणात्मन् प्रभो! (मत्) = मुझसे (मा पर्यावृतः) = पराङ्मु मुख मत होओ। हे प्राण! तू (मत् अन्यः न भविष्यसि) = कभी भी मुझसे पृथक् न होगा। मेरे साथ तू तादात्म्यापन्न ही है। हे (प्राण) = प्राणात्मन् प्रभो! मैं (जीवसे) = उत्कृष्ट जीवन की प्राप्ति के लिए (त्वा) = आपको (मयि) = अपने में (बधामि) = इसप्रकार बाँधता हूँ, (इव) = जैसे (अपां गर्भम्) = उदक [जल] गर्भभूत वैश्वानर अग्नि को अपने अन्दर धारण करते हैं।
भावार्थ
हम प्राणात्मा प्रभु से कभी पृथक् न हों। प्रभु को इसप्रकार अपने अन्दर धारण करें जैसेकि जल गर्भभूत वैश्वानर अग्नि को धारण करते हैं।
प्राणात्मा प्रभु [ब्रह्म] को धारण करनेवाला यह 'ब्रह्मा' बनता है-बढ़ा हुआ। यही अगले सूक्त का ऋषि है। ब्रह्म की ओर चलनेवाला 'ब्रह्मचारी' देवता है -
भाषार्थ
(प्राण) हे प्राण ! (मत्) मुझ से (मा, पर्यावृतः) न पराङ्मुख हो, (मत्) मुझ से (अन्यः) पराया अर्थात् अपरिचित (न भविष्यसि) तू न होगा (जीवसे) जीने के लिये, (अपां१ गर्भम् इव) जैसे माता गर्भाशय के जल सम्बन्धी गर्भ को सुरक्षितरूप में बांधे रखती हैं, वैसे जीने के लिए, (प्राण) हे प्राण ! (त्वा) तुझे (मयि) अपने में (बन्ध्नामि) सुरक्षित रूप में मैं बान्धता हूं।
टिप्पणी
[मा पर्यावृता= मा पराङ्मुखः भूः। पर्यावृतः= वृतु वर्तने, माङि लुङ्, च्लेः अङ्। न मदन्यः = व्यक्ति प्राण के प्रति कहता है कि "तू मुझ से अन्य अर्थात् अपरिचित न होगा" - अतः मुझे अपना परिचित जान कर मेरे साथ बन्धा रह। मन्त्र में परमेश्वर के प्रति भी व्यक्ति इसी भावना को प्रकट करता हैं। परमेश्वर को भी धारणा-ध्यान आदि उपायों द्वारा अपने साथ बान्धे रखने का संकल्प करता हैं। "बध्नामि" यथा "स॒प्तास्या॑सन् परि॒धय॒स्त्रिः स॒प्त स॒मिधः॑ कृ॒ताः। दे॒वा यद्य॒ज्ञं॑ त॑न्वा॒नाऽअब॑ध्न॒न् पुरु॑षं प॒शुम् ॥" (यजु० ३१।१५) में “अबध्नन्" पद बांधने अर्थ का सूचक हैं। धारणारूपी योगाङ्ग भी बांधने अर्थ को सूचित करता है। यथा "देशवन्धः चितस्य धारणा" (योग ३।१)] [१. अथवा जलनिष्ठ अग्नि को जैसे जल अपने में बान्धे रखते हैं, वैसे मैं तुझे अपने में, हे प्राण ! बांधता हूं। यथा "अप्स्वग्ने सधिष्टव" "अग्ने गर्भा अपामसि" (यजु० १२।३६,३७)।]
विषय
प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे (प्राण) प्राण ! (मत्) मुझ से (मा परि अवृतः) दूर पराङ्मुख मत हो। तू (मद् अन्यः) मुझ आत्मा से पृथक् (न भविष्यसि) नहीं हो सकता ! हे (प्राण) प्राण (अपां) समस्त कार्यों और विज्ञानों को (गर्भम् इव) ग्रहण करने हारे, परम-सामर्थ्यवान् के समान (त्वा) तुझ को ही (जीवसे) जीवन धारण के लिये (मयि) अपने में मैं (बध्नामि) बांधता हूँ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(प्राण मत्-मा पर्यावृतः) हे प्राण ! तु मुझसे मत पराङ्मुख होना (मत्· अन्यः न भविष्यसि) तू मेरे से अन्य-भिन्न न होगामैं तुझे अपना बनाये रहूंगा (प्राण! अपां गर्भमिव जीवसे मयि त्वा बध्नामि ) हे प्राण! ऋतुधर्म को प्राप्त नारियाँ "योषा वा आपः" (शतः १|१|१|१८) जैसे गर्भ को बान्धती हैं ऐसे में जीने के लिये अपने में तुझे बान्धता हूँ ॥२६॥
विशेष
ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
इंग्लिश (4)
Subject
Prana Sukta
Meaning
O Prana, pray never turn away from me. Never be alien to me, never alienate me. In order to live a vibrant life, I take you on unto me in bond as the very source of the generation of life’s action and enthusiasm.
Translation
O breath, turn not about from me; not another than I shalt thou be; like the embryo of the waters, in order to life (jivas), I bind thee to me, O breath
Translation
Let not this Prana ever be separate from me. Let it not be strange to me. I bind this Prana on myself for life like water's germ the fire in the mid of waters.
Translation
Thou, O God, never shalt be away, never shalt be estranged from me. I bind Thee on myself for life, O God, Powerful to perform all deeds and possess all sorts of knowledge .
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२६−(प्राण) हे प्राणप्रद परमेश्वर (मा) निषेधे (मत्) मत्तः (पर्यावृतः) वृञ् वरणे-क्त। पृथग् वेष्टितः (न) निषेधे (मत्) (अन्यः) पृथग्भूतः (भविष्यसि) (अपाम्) प्राणिनाम्। जलानां वा (गर्भम्) उदरस्थं सन्तानम्, गर्भवद् वर्तमानं जलं वा (इव) यथा (जीवसे) जीवनाय (प्राण) (बध्नामि) धरामि (त्वा) त्वाम् (मयि) आत्मीये ॥
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