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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    57

    या ते॑ प्राण प्रि॒या त॒नूर्यो ते॑ प्राण॒ प्रेय॑सी। अथो॒ यद्भे॑ष॒जं तव॒ तस्य॑ नो धेहि जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । ते॒ । प्रा॒ण॒ । प्रि॒या । त॒नू: । यो इति॑ । ते॒ । प्रा॒ण॒ । प्रेय॑सी । अथो॒ इति॑ । यत् । भे॒ष॒जम् । तव॑ । तस्य॑ । न॒: । धे॒हि॒ । जी॒वसे॑ ॥६.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या ते प्राण प्रिया तनूर्यो ते प्राण प्रेयसी। अथो यद्भेषजं तव तस्य नो धेहि जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । ते । प्राण । प्रिया । तनू: । यो इति । ते । प्राण । प्रेयसी । अथो इति । यत् । भेषजम् । तव । तस्य । न: । धेहि । जीवसे ॥६.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] (ते) तेरी (या) जो (प्रिया) प्रीति करनेवाली (यो) और जो, (प्राण) हे प्राण ! (ते) तेरी (प्रेयसी) अधिक प्रीति करनेवाली (तनूः) उपकार क्रिया है। (अथो) और भी (यत्) जो (तव) तेरा (भेषजम्) भयनिवारक कर्म है, (तस्य) उसका (नः) हमारे (जीवसे) जीवन के लिये (धेहि) दान कर ॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमेश्वर के उपकारों को ध्यान में रखकर कार्य करते हैं, वह अपना जीवन बढ़ाते हैं ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(या) (ते) तव (प्राण) (प्रिया) प्रीतिकरी (तनूः) तन उपकारे-ऊ। उपकारक्रिया (यो) या-उ। या च (प्रेयसी) प्रिय-ईयसुन्, प्रादेशः। प्रियतरा (अथो) अपि च (भेषजम्) भयनिवारकं कर्म (तस्य) (नः) अस्माकम् (धेहि) डुधाञ् दाने। दानं कुरु (जीवसे) जीवनवर्धनाय। अन्यद् गतम् ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ  =  ( या ते प्राणप्रिया तनूः ) = हे प्राणप्रिय परमात्मन्! जो आपका स्वरूप प्यारा है  ( या उ ते प्राण प्रेयसी ) = और जो आपका स्वरूप अति प्रिय है  ( अथो यद् भेषजम् तव ) = और आपका अमृतत्व प्रापक जो औषध है  ( तस्य नो धेहि जीवसे ) = वह हमें जीवन के लिए दो ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे परम प्यारे परमात्मन् ! संसार-भर में आप जैसा कोई प्यारा नहीं है, प्यारे से भी प्यारे आप हैं । जो महापुरुष आपसे प्यार करते हैं, उनको अमृतत्व नाम मोक्ष का साधन अपनी अनन्य भक्ति और ज्ञान रूप औषध का दान आप करते हैं, जिसको प्राप्त होकर वे महात्मा सदा आनन्द में मग्न रहते हैं ।

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    विषय

    न केवल प्रिया, अपितु प्रेयसी 'तनूः'

    पदार्थ

    १. प्राण का व्यापार ठीक से होने पर शरीर बड़ा सुन्दर बनता है-सुन्दर ही क्या इसकी स्थिति अत्यन्त सुन्दर होती है, अत: कहते हैं कि हे (प्राण) = प्राण! (या) = जो (ते) = तेरा (प्रिया तनू:) = स्वस्थ अतएव प्रीतिकर शरीर है, (या उ) = और जो निश्चय से, हे (प्राण) = प्राण! (ते प्रेयसी) = [तन:] तेरा अतिशयित प्रीति करनेवाला शरीर है (अथो) = और (यत्) = जो (तव भेषजम्) = तेरा औषधगुण है, (तस्य नः धेहि) = उसे हमारे लिए धारण कर, (जीवसे) = जिससे हम उत्तम जीवनवाले बनें। ।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हमें प्राणसाधना द्वारा वह प्राणशक्ति प्राप्त हो, जिससे कि हमारी तनू [शरीर] नीरोग व प्रिय [सुन्दर] बने।

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    भाषार्थ

    (प्राण) हे प्राण ! (या, ते, प्रिया, तनू) जो तेरी प्रियरूपा तनू है, (या, उ, ते, प्राण, प्रेयसी) और जो, हे प्राण ! तेरी अधिक प्रियरूपा तनू है, (अथो) तथा (तव) तेरा (यद्) जो (भेषजम्) भेषज अर्थात् जीवात्मा के रागद्वेष, अविद्या और विविध जन्मरूपी रोगों की चिकित्सा करने वाला स्वरूप है, (तस्य नः धेहि) उसे हमें प्रदान कर (जीवसे) जीवन के लिये।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में प्राण की दो तनुओं का वर्णन हुआ है, एक है प्रियरूपा और दूसरी है उस से अधिक प्रियरूपा। मन्त्रों में ब्रह्माण्ड और उस के घटक अवयवों को, परमेश्वर की तनू तथा तनू के अङ्गों के रूप में वर्णित किया है। यथा "यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्। दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥" "यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः। अग्निं यश्चक्र आस्यं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः"।। "यस्य वातः प्राणापानौ चक्षुरङ्गिरसोऽभवन्। दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥" (अथर्व० १०।७।३२-३४), इत्यादि। इस प्रकार मन्त्रों में वर्णित परमेश्वरी-तनू, अस्मदादि के लिये प्रियरूपा है, हम इसी तनू में लिप्त रहते हैं। परन्तु इस से भिन्न पारमेश्वरी-तनू, परमेश्वर का निज अलौकिक स्वरूप है जिसे कि प्रेयसी-तनू कहा है। यह तनू श्रेयसी है। संसार के विरक्त महात्मा, प्रियरूपा-तनू की अपेक्षा प्रेयसी-तनू के दर्शन के अभिलाषी होकर ध्यानावस्थित होते हैं। परमेश्वर भेषजरूप भी है, औषध रूप भी है (भिषज् चिकित्सायाम्)। यथा "भेषजमसि भेषजं गवेऽश्वाय पुरुषाय भेषजम्। सुखम्मेषाय मेष्यै॥ (यजु० ३।५९)। इस मन्त्र में रुद्रनामक परमेश्वर को सम्बोधित करके, "भेषजम्" का अर्थ महीधराचार्य करते हैं "औषधवत्सर्वोपद्रव निवारकः, अर्थात् औषध के सदृश सब उपद्रवों का विनाश करने वाला"। इस प्रकार व्याख्यात मन्त्र में परमेश्वर की ही दो तनुओं अर्थात् स्वरूपों का वर्णन प्रतीत होता है। इन दो स्वरूपों को उपनिषदों में प्रेय और श्रेय कहा है। प्राणि-जीवन में भी दो स्वरूप होते हैं, शरीर और जीवात्मा। इसी प्रकार परमेश्वर के दो स्वरूपों का वर्णन मन्त्रों में होता है। प्राणि-जीवन में शरीर में और शरीरवयवों में प्रेरणा चेतन-जीवात्मा द्वारा होती है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड के घटक अवयवों में भी प्रेरणायें, चेतन द्वारा हो रही हैं, इस तथ्य के प्रदर्शन के लिये ब्रह्माण्ड को पारमेश्वरी-तनू कहा है]।

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे प्राण ! (या ते प्रिया तनूः) जो तेरी प्रिय तनु=शरीर या स्वरूप है और हे प्राण (यो) जो (ते) तेरी (प्रेयसी) सब से अति प्यारी प्रियतम आत्मरूप (तनूः) ‘तनु’ है (अथो यद् तव भेषजं) और जो तेरा समस्त रोग, कष्टों को दूर करने और आत्मा को शान्ति देने हारा अमृतमय स्वरूप हैं (तस्य नः जीवसे धेहि) उसको हमारे जीवन के लिये प्रदान कर।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘तनूर्यौ ते’ इति सायगाभिमतः पाठः। ‘यो। इति’ इति पदपाठः। ‘या। उ’ इति ह्विटनिकामितः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (प्राण ते या प्रिया तनूः-ते प्राण या उ-प्रेयसी) हे प्राण तेरी जो प्यारी तनू-जीवनप्रद धारा है, जो ही तेरी और भी प्यारी दिव्य जीवनप्रद धारा है (अथ-उ यत् तव भेषजं तस्य नः-जीवसे धेहि) अथ च जो भेषज-दीर्घ जीवनप्रदस्वरूप है उसे हमारे जीवन के लिये धारण कर ॥६॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    O Prana, homage to your energy body, dear to all. Homage to your higher energy body dearer to the yogins in meditation. And that energy of yours which is medicinal and health giving, of that give us a lot for a long and healthy life. (The dear here is Prey a, and the dearer is Shreya: Kathopanishad, 1, 2, 1-2.)

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    Translation

    The dear body that is thine, O breath, and the dearer one that is thine, O breath, likewise what remedy is thine, assign thou of it to us in order to live (jivas).

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    Translation

    Let this Prana give to us its strength which is great and dear, its strengthening vigour which is dearer to all and its healing balm to make us live long.

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    Translation

    O God, communicate to us. Thy dear, Thy dearest form. Whatever Immortal Nature Thou hast to console our soul, and avert afflictions, give us thereof that we may live!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(या) (ते) तव (प्राण) (प्रिया) प्रीतिकरी (तनूः) तन उपकारे-ऊ। उपकारक्रिया (यो) या-उ। या च (प्रेयसी) प्रिय-ईयसुन्, प्रादेशः। प्रियतरा (अथो) अपि च (भेषजम्) भयनिवारकं कर्म (तस्य) (नः) अस्माकम् (धेहि) डुधाञ् दाने। दानं कुरु (जीवसे) जीवनवर्धनाय। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    য়া তে প্রাণ প্রিয়া তনুর্য়ো তে প্রাণ প্রেয়সী।

    অথো য়দ্ভেষজং তব তস্য নো ধেহি জীবসে।। ৯।।

    (অথর্ব ১১।৪।৯)

    পদার্থঃ (য়া তে প্রাণ প্রিয়া তনু) হে প্রাণ প্রিয় পরমাত্মা! তোমার যে স্বরূপ প্রিয়, (যো তে প্রাণ প্রেয়সী) আর তোমার যে স্বরূপ অতি প্রিয়, (অথো য়দ্ ভেষজং তব) আর তোমার অমৃতত্ব প্রাপক যে ঔষধি; (তস্য নঃ ধেহি জীবসে) তা আমাদেরকে জীবন ধারণের জন্য দান করো। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে পরমপ্রিয় পরমাত্মা! এই সংসারজুড়ে তোমার মত প্রিয় কেউ নেই, তুমি প্রিয় থেকেও প্রিয়তর। যে মহাপুরুষ তোমার সাথে প্রীতি করেন, তাঁকে অমৃতময় সাধন শক্তি, অনন্ত ভক্তি ও জ্ঞানরূপ ঔষধ  দান করো। যা প্রাপ্ত হয়ে আমরা যেন সদা আনন্দে মগ্ন থাকি।।৯।।

     

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