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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 22
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    62

    अ॒ष्टाच॑क्रं वर्तत॒ एक॑नेमि स॒हस्रा॑क्षरं॒ प्र पु॒रो नि प॒श्चा। अ॒र्धेन॒ विश्वं॒ भुव॑नं ज॒जान॒ यद॑स्या॒र्धं क॑त॒मः स के॒तुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ष्टाऽच॑क्रम् । व॒र्त॒ते॒ । एक॑ऽनेमि । स॒हस्र॑ऽअक्षरम् । प्र । पु॒र: । नि । प॒श्चा । अ॒र्धेन॑ । विश्व॑म् । भुव॑नम् । ज॒जान॑ । यत् । अ॒स्य॒ । अ॒र्धम् । क॒त॒म: । स: । के॒तु: ॥६.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अष्टाचक्रं वर्तत एकनेमि सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा। अर्धेन विश्वं भुवनं जजान यदस्यार्धं कतमः स केतुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अष्टाऽचक्रम् । वर्तते । एकऽनेमि । सहस्रऽअक्षरम् । प्र । पुर: । नि । पश्चा । अर्धेन । विश्वम् । भुवनम् । जजान । यत् । अस्य । अर्धम् । कतम: । स: । केतु: ॥६.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 22
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    हिन्दी (5)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अष्टाचक्रम्) आठ [दिशाओं] में चक्रवाला, (एकनेमि) एक नेमि [नियमवाला] और (सहस्राक्षरम्) सहस्र प्रकार से व्याप्तिवाला [ब्रह्म] (प्र) भलीभाँति (पुरः) आगे और (नि) निश्चय करके (पश्चा) पीछे (वर्तते) वर्तमान है। उसने (अर्धेन) आधे खण्ड से (विश्वम्) सब (भुवनम्) अस्तित्व [जगत्] को (जजान) उत्पन्न किया, और (यत्) जो (अस्य) इस [ब्रह्म] का (अर्धम्) [दूसरा कारणरूप] आधा है, (सः) वह (कतमः) कौन सा (केतुः) चिह्न है ॥२२॥

    भावार्थ

    वह परब्रह्म अपने अटूट नियम से सब जगत् में व्यापकर सबसे पहिले और पीछे निरन्तर वर्तमान है, उसी की सामर्थ्य से यह सब जगत् उत्पन्न हुआ है और उसी की शक्ति में अनन्त कारणरूप पदार्थ वर्तमान है ॥२२॥यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है, देखो-अथर्व० १०।८।७। तथा १३ ॥

    टिप्पणी

    २२−(अष्टाचक्रम्) अष्टसु दिक्षु चक्रं यस्य तद् ब्रह्म। अन्यद्व्याख्यातम्-अथर्व० १०।८।७ तथा १३ ॥

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    विषय

    अष्टाचक्र, एकनेमि, सहस्त्राक्षरम्

    पदार्थ

    १. (अष्टाचक्रम्) = 'रस, रुधिर, मांस, मेदस, अस्थि, मज्जा, वीर्य व ओजस्' नामक आठ धातुरूप आठ चनोंवाला यह शरीररूप रथ (एकनेमि वर्तते) = प्राणरूप एकनेमि से वेष्टित हुआ हुआ प्रवृत्त होता है। यह (सहस्त्राक्षरम्) = सहनों अक्षों से युक्त है ['र:' मत्वर्थीयः] अथवा बहुविध व्याप्तिवाला है[अश् व्याप्ती]। यह रथात्मक शरीर (पुर:) = 'पुरस्तात् पूर्वभाग में प्र [वर्तते]-प्रवृत्त होता है और (पश्चा नि) = [वर्तते] फिर पीछे लौटता है। इसप्रकार प्राण प्राणिशरीरों में प्रवेश करके प्रवृत्ति व निवृत्ति को उत्पन्न करता है। २. सूत्रात्मभावेन स्थित वह प्राणात्मा प्रभु (अर्धेन) = अपने एक पाद [अंश] से (विश्वं भुवनम्) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को (जजान) = प्रादुर्भूत करता है। (अस्य) = इस सूत्रात्मा प्राण का (यत्) = जो अन्य (अर्धम्) = आधा अंश है, वह अपरिच्छिन्न अंश (क-तम:) = [क: सुखम्] अत्यन्त आनन्दमय है, (सः केतु:) = वह प्रकाशमय [A ray of light] है।

    भावार्थ

    प्रभु ने इस शरीर-रथ को रस आदि आठ धातुरूप चक्रोंवाला बनाया है, प्राण ही इन चक्रों की एकनेमि [वेष्टन] है। यह शरीर-रथ हजारों अक्षोंवाला है, आगे और पीछे इसकी प्रवृत्ति होती है। प्राणात्मा प्रभु के एकदेश में ब्रह्माण्ड की सब क्रियाएँ हो रही हैं। प्रभु के त्रिपाद् तो आनन्दमय व प्रकाशमय ही हैं -

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    भाषार्थ

    ब्रह्म (अष्टाचक्रम्) आठ चक्रों वाले ब्रह्माण्ड-रथ का (बर्तते) स्वामी हैं, (एकनेमि) वह इस ब्रह्माण्ड-रथ के चक्रों की नेमि है, (सहस्राक्षरम्) इन आठ चक्रों में हजारों अक्षों के रूप में रम रहा है, (प्र पुरः) दूर तक आगे की ओर (नि पश्चा) और नितरां पीछे की ओर (वर्तते) विद्यमान है। (अर्धेन) निज अर्ध अर्थात् समृद्ध "एकपाद" द्वारा (विश्वं भुवनं जजान) समग्र ब्रह्माण्ड को उस ने उत्पन्न किया हैं, (अस्य) इस ब्रह्म का (यत्) जो (अर्धम्) शेष समृद्ध "त्रिपाद्" है (सः कतमः) वह अतिसुखरूप हैं, (सः केतुः) वह ज्ञानमय है। विज्ञानधन है।

    टिप्पणी

    [ब्रह्माण्ड-रथ के आठ चक्र है-प्रकृति, महत्तत्व, अहङ्कार तथा पंञ्चतन्मात्राएँ। प्रकृति तो प्रकृतिरूप हैं, विकृतिरूप नहीं। शेष प्रकृतिरूप और विकृतिरूप हैं। ये आठ चक्र हैं। इन्हीं के आधार पर समग्र ब्रह्माण्ड आश्रित तथा चलायमान हो रहा है। रथ में चक्र तो अल्प परिमाण होते हैं, परन्तु रथ उनकी अपेक्षा महापरिमाणी होता है। इसी प्रकार आठ-चक्रों और ब्रह्माण्ड के परिमाणों में अनुपात है। एकनेमिः = नेमि लोहे का चक्र होता है जो कि रथ के पहियों पर चढ़ाया जाता है, जोकि रथ की रक्षा करता है, इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के आठ चक्रों पर ब्रह्म नेमिरूप हैं, उन की रक्षा करता है। चक्रों को परस्पर मिलाए रखने के लिये उन के बीच में दण्डा लगा रहता हैं जिसे कि अक्ष कहते हैं, ब्रह्माण्ड के चक्रों में ब्रह्मरूपी अक्ष लगा हुआ हैं। ब्रह्माण्ड में हजारों सौर मण्डलों के चक्र चल रहे हैं, उन सब चक्रों में ब्रह्म ही अक्षरूप है। अर्धम् = यह शब्द "ऋधु वृद्धौ" द्वारा व्युत्पन्न हैं। यजुर्वेद में एकपाद और त्रिपाद् ब्रह्म का वर्णन हैं (अध्याय ३१ मन्त्र ३,४)‌। ब्रह्म का एकपाद भी महृवृॎद्ध है, जिस में कि समग्र ब्रह्माण्ड समाया हुआ है, अतः यह एकपाद भी अर्ध हैं, समृद्ध है। कतमः = कः (सुखम्) + तमप् (अतिशायने)। केतुः प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। प्रपुरः, नि पश्चा= अर्थात् व्यापक हैं। मन्त्र में "अष्टाचक्रम्" द्वारा शरीर का भी वर्णन प्रतीत होता है। यथा "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" (अथर्व० १०।२।३१)। तथा सौर मण्डल का भी वर्णन प्रतीत होता है। सौर चक्रों को भी आदित्य मण्डलस्थ ब्रह्म ही नेमि तथा अक्षरूप में गतिसम्पन्न कर रहा है (यजु० ४०।१७)] सौर मण्डल= बुध, शुक्र, पृथिवी, बृहस्पति, शनि, चन्द्रमा तथा सूर्य]।

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (अष्टाचक्रम्) आठ चक्रों और (एकनेमि) एक नेमि अर्थात् चक्रधारा से युक्त है, (सहस्राक्षरम्) उसमें सहस्रों अक्ष अर्थात् धुरे हैं। (प्र पुरः नि पश्चा) वह आगे जाता और पीछे को भी लौट आता है। वह प्राणरूप प्रजापति (अर्धेन विश्वं भुवनं जजान) अर्ध भाग से समस्त विश्व को उत्पन्न करता है। और (यद् अस्य अर्धम्) इसका जो अर्ध है (सः केतुः) वह ज्ञानमय (कतमः) कौनसा है ? शरीर का प्राण उस महाप्राण का एक प्रतिदृष्टान्त है। इस शरीर में त्वचा रुधिर आदि सात और ओज आठवीं धातु आठ ‘चक्र’ हैं, ये शरीर को बनाती हैं, उन पर ‘प्राण’ ही ‘एक नेमि’ अर्थात् हाल चढ़ा है। मन के संकल्प विकल्प रूप सहस्रों उसमें अक्ष हैं। वह प्राण बाहर और भीतर जाता है। आधे से इस शरीर को थामता और आधे से वह स्वयं आत्मरूप है। अर्थात् एकांश से कर्ता और एकांश से भोक्ता है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड में पृथिव्यादि पञ्चभूत काल दिशा और मन अथवा प्रकृति, महत् और अहंकार ये आठ संसार के प्रवर्तक ‘चक्र’ हैं। उन पर एक ‘नेमि’ उनका वशयिता ‘प्राण’ परमेश्वर है। वह (प्र पुरो नि पश्चा) इस संसार को आगे ढकेलता और पीछे प्रलय में ले जाता है। उसका अर्ध = विभूतमत् अंश समस्त विश्व को उत्पन्न करता है और दूसरा ‘अर्ध’ विभूतिमान् स्वरूप ज्ञानमय है जो ‘कतमः’ अज्ञेय है। न जाने कौनसा और कैसा है ? अथवा ‘कतमः’ अतिशय सुख स्वरूप ‘परमानन्द’ है।

    टिप्पणी

    ‘एकचक्रं वर्त्तत एकनेमि’ इति अथर्व० १०। ८। ७॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (अष्टचक्रम्) आठ चक्र-पांच भूत, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति समष्टिरूप अथवा रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओज वाला व्यष्टिशरीररथ (एकनेमि) एक समष्टि प्राण या एक व्यष्टि शारीरिक प्राण नेमि घेरा रक्षक (सहस्राक्षरम्) बहुत अक्ष 'सहस्र अक्ष-रम्'-केन्द्र धुरा वाला है ['रः-मत्वर्थीयः'] या बहुत व्यापन शक्तियों वाला है या बहुत व्यापन तन्तुओं वाला है । (पुरः प्रवर्तते पश्चा निवर्तते) श्रागे प्रवृत होता है और पीछे निवृत्त होता है समष्टि सृष्टिकाल में ग्रौर प्रलयकाल में, शरीरस्थ प्राण श्वास लेने उच्छवास निकालने में आगे पीछे चलता है (अर्धेन विश्वं भुवनं जजान) अधे एकांश से प्रवर्तन बल या स्वरूप से स्थूल जगत् को प्रकट करता है, अर्ध-एक अंश से स्थूल शरीर व्यक्त करता है (यत्-अस्य-अर्ध-सः कतमः-केतुः) जो इसका अधा या अवशिष्ट है वह अस्थूल जानने योग्य सुखतम चिन्तनीय है शक्तिप्रधान मात्र है ॥२२॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    Prana, the Prana of Prana, all-comprehending presence and power like the felly of a wheel moves and turns the eight-wheeled, thousand axled chariot of the universe round and round, up and down, out and in. With half of its potential it creates the entire world of existence. What the other half is remains transcendent, highest pure bliss, self-existent omniscience.

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    Translation

    The eight-wheeled (thing,neut.) rolls, having one rim, thousand-syllabled, forth in front, down behind: with a half it has generated all existence; what its (other) half (is) - which sign is that?

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    Translation

    This Prana as Prajapati, the cosmo-psysic energy eight-wheeled single-fellied, thousand poked moves forward and back-ward. With its half it creates the whole cosmos, what sign is to let us know the other half. [N. B.:—Eight plexuses in the body are called eight wheals. One single body is one felly and there are many forces working in body and mind. This similarity is also traced in the world. Eight Prakriti Vikriti are the eight wheels while one material cause is one felly. Hundreds and thousands of causes and forces are working in the world in which this Prana moves the one half of it is known while other is inexplicable.]

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    Translation

    God, Who pervades the eight directions, observes One Law, possesses the power of a thousand eyes, exists before the creation and after the dissolution of the universe. With a part of His power, He hath created the whole world. What sign is there to tell us of the other?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(अष्टाचक्रम्) अष्टसु दिक्षु चक्रं यस्य तद् ब्रह्म। अन्यद्व्याख्यातम्-अथर्व० १०।८।७ तथा १३ ॥

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