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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    75

    आ॑थर्व॒णीरा॑ङ्गिर॒सीर्दै॒वीर्म॑नुष्य॒जा उ॒त। ओष॑धयः॒ प्र जा॑यन्ते य॒दा त्वं प्रा॑ण॒ जिन्व॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒थ॒र्व॒णी: । आ॒ङ्गि॒र॒सी: । दैवी॑: । म॒नु॒ष्य॒ऽजा: । उ॒त । ओष॑धय: । प्र । जा॒य॒न्ते॒ । य॒दा । त्वम् । प्रा॒ण॒ । जिन्व॑सि ॥६.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आथर्वणीराङ्गिरसीर्दैवीर्मनुष्यजा उत। ओषधयः प्र जायन्ते यदा त्वं प्राण जिन्वसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आथर्वणी: । आङ्गिरसी: । दैवी: । मनुष्यऽजा: । उत । ओषधय: । प्र । जायन्ते । यदा । त्वम् । प्राण । जिन्वसि ॥६.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (आथर्वणीः) निश्चल स्वभाववाले महर्षियों की प्रकाशित की हुई और (आङ्गिरसीः) विज्ञानियों की बताई हुई (दैवीः) देव [मेघ] से उत्पन्न (उत) और (मनुष्यजाः) मनुष्यों से उत्पन्न (ओषधयः) ओषधें (प्र जायन्ते) उत्पन्न हो जाती हैं, (यदा) जब (त्वम्) तू, (प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] [उन को] (जिन्वसि) तृप्त करता है ॥१६॥

    भावार्थ

    मेघ द्वारा स्वयं उत्पन्न और मनुष्य द्वारा खेती आदि से उत्पन्न अन्न और ओषधें परमेश्वर के सामर्थ्य से वृष्टि होने पर उत्पन्न होती हैं, जिनका प्रचार अनुभवी महात्मा लोग संसार में करते हैं ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(आथर्वणीः) अथर्वा व्याख्यातः-अ० ४।१।७। तेन प्रोक्तम्। पा० ४।३।१०१। इत्यण्, ङीप् जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। अथर्वभिर्निश्चलबुद्धिभिः प्रकाशिताः (आङ्गिरसीः) अङ्गिरा व्याख्यातः-अ० २।१२।४। पुनः पूर्ववत् सिद्धिः। अङ्गिरोभिर्विज्ञानिभिः प्रोक्ताः (दैवीः) अ० १।१९।२। देव-अञ्, अन्यत् पूर्ववत् साधु। देवाद् मेघादागता व्युत्पन्नाः (मनुष्यजाः) क्षेत्राद् मनुष्येभ्य उत्पन्नाः (ओषधयः) नानाविधा अन्नाद्याः (प्रजायन्ते) प्रकर्षेणोत्पद्यन्ते। अन्यद्गतम्-म० १४ ॥

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    विषय

    चार प्रकार की ओषधियाँ

    पदार्थ

    १. जो ओषधियाँ मन की स्थिरता में सहायक होती हैं वे [अ-थर्व] 'आथर्वणी' कहाती हैं। अंग-प्रत्यंग में रस का सञ्चार करनेवाली ओषधियाँ 'आंगिरसी' हैं। देवों, अर्थात् सब इन्द्रियों को निर्दोष व सशक्त बनानेवाली ओषधियाँ "दैवी' हैं। विचारपूर्वक कर्म करनेवाले मनुष्य 'मत्वा कर्माणि सीव्यति' को जन्म देनेवाली 'मनुष्यजा' कहलाती हैं। ये ('आथर्वणी:, आंगिरसी:, दैवी: उत मनुष्यजा:') = आथर्वणी, आंगीरसी, दैवी और मनुष्यजा (ओषधयः) = ओषधियाँ (प्रजायन्ते) = तभी पैदा होती हैं, (यदा) = जब हे (प्राण) = प्राणात्मन् प्रभो! (त्वं जिन्वसि) = आप प्रीणित करते हैं। हे प्राण! आप ही वृष्टिप्रदान से इन ओषधियों का पोषण करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभकृपा से वृष्टि होकर उन विविध ओषधियों की उत्पत्ति होती है, जोकि 'मानस स्थिरता में सहायक होती हैं, अंग-प्रत्यगों में रस का सञ्चार करती हैं, इन्द्रियों को निर्दोष व सशक्त बनाती हैं तथा हमें विचारपूर्वक कर्म करनेवाला करती हैं।

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    भाषार्थ

    आथर्वणी, आङ्गिरसी, देवी और मनुष्यज ओषधियां पैदा होती हैं जबकि हे प्राण ! तू उन्हें प्रीणित करता है।

    टिप्पणी

    [आथर्वणीः १= मनोनिरोध द्वारा उत्पन्न मानसिक शक्ति आथर्वणी ओषधि हैं। अथर्वा = थर्वतिः चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः (निरुक्त ११।२।१४) अर्थात् मन की चञ्चलता का प्रतिषेध, अर्थात् मन की स्थिरता, निरोध। यथा "आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः। दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते" (अथर्व० ४।१३।५), मनोबल चिकित्सक कहता है कि "मैं तुझे शान्ति देने वाली और तुझे स्वस्थ करने वाली ओषधियों के साथ आया हूं। उग्रबल तेरे लिये मैं लाया हूं, तेरे यक्ष्मरोग को मैं प्रेरित करता हूँ"। अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः। अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः ॥ (अथर्व० ४।१३।६), "यह मेरा हाथ भाग्यशाली है, यह मेरा अधिक भाग्यशाली हैं। यह मेरा सब रोगों का ओषधरूप है, यह छूने अर्थात् स्पर्शमात्र से कल्याण करता है"। हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिह्वा वाचः पुरोगवी। अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि ॥ (अथर्व० ४।१३।७), "दस शाखाओं अर्थात् अङ्गुलियों वाले दो हाथों से पहिले वाणी सम्बन्धी जिह्वा चलती है। आमय अर्थात् रोगों को हराने वाले उन दो हाथों द्वारा तेरा मैं स्पर्श करता हूँ, या हम करते हैं। इस प्रकार मन्त्रों में हस्त-स्पर्श चिकित्सा, तथा वाणी द्वारा, रोगी के रोग को दूर करने का आश्वासन दिया है। इस प्रकार की मनोबल चिकित्सा आथर्वणी-ओषधि चिकित्सा है। आङ्गिरसीः१-वेदों में अग्नि को अङ्गिरा कहा है। यथा “तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि" यजुर्वेद (३।३) मन्त्रोक्त अङ्गिरा अग्नि यज्ञियाग्नि है। अग्निहोत्र तथा यज्ञशालाओं की अग्नियों से उत्थित यज्ञधूम स्वास्थ्य कर तथा रोग विनाशक होता है। तभी अग्नि को "रक्षोहा" अर्थात् रोगजनक कीटाणुओं का हनन करने वाला तथा “अमीवचातनः" अर्थात् रोगनाशक कहा है, (अथर्व० १।२८।१)। इसलिये अग्नियां ओषधि रूप हैं। ओषधि = जलन तथा दोषों का धयन करने वाली। गृह्याग्निहोत्र की अग्नियां, तथा यज्ञशालोयाग्नियां नाना हैं। इसलिये “आङ्गिरसोः ओषधयः" में बहुवचन भी उपपन्न हो जाता है। तथा "अयास्य२" प्राण को "आङ्गिरस" अर्थात् अङ्गिरा-सम्बन्धी कहा है। यथा- "अथ हेममासन्यं प्राणमूचुस्त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्य एष प्राण उदगायत्ते विदुरनेन वै न उद्गात्राऽत्येष्यन्तीति तदभिद्रुत्य पाप्मनाविव्यत्सन्त्स यथाऽश्मानमृत्वा लोष्टो विध्वसेतैव हैव विध्वसमाना विष्वञ्चो विनेशुस्ततो देवा अभवन्‌ परासुरा भवत्यात्मना परास्य द्विषन्भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद॥ते होचुः क्व नु सोऽभूद्यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्तरिति सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गाना हि रसः॥ (बृहदा० उप० ब्राह्मण ३। खण्ड ७, ८)। तथा "सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गाना हि रसः प्राणो वा अङ्गाना रसः प्राणो हि वा अङ्गाना रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छुष्यतिष हि वा अङ्गाना रसः॥ (खण्ड १९)। अर्थात् वे इस आस्य-प्राण को बोले कि हमारे लिये तू गा। उन्होंने कहा कि वह कहां है कि जिस ने हमें इस प्रकार विजय दिलाई है, उत्तर मिला कि वह यह है जो कि आस्य अर्थात् मुख के अन्दर है। वह है "अयास्य आङ्गिरस", अर्थात् "अङ्गों का रस"। वह अयास "आङ्गिरस" निश्चय से अङ्गो का रस है, प्राण ही अङ्गों का रस है, इसलिये जिस किसी अङ्ग से प्राण निकल जाता है वह-वह सूख जाता है। इस सन्दर्भ या खण्ड में आसन्य अर्थात् मुखस्थ प्राण के गान का वर्णन हुआ है। नासिका, मुख और उरुः स्थल में संचार करने वाली वायु द्वारा गाना सम्पन्न होता है। इसे आङ्गिरस कहा है, अर्थात् शरीर और तदङ्गों का रस। इस प्रकार प्राण जीवनीय, स्वास्थ्यप्रद तथा रोगनिवारक होने से महौषध रूप है। यही मुख्य प्राण, अपान, व्यान, समान, और उदान रूप में विभक्त हो कर जीवनचर्या का कारण बन रहा है, अतः "आङ्गिरसीः ओषधयः" रूप हैं। दैवीः= पृथिवी, अप्, तेज और वायु दैवी ओषधियां हैं। पृथिवी अर्थात् मिट्टी के प्रलेप द्वारा त्वचा के विकारों ओर अङ्गों की पीड़ाओं का शमन होता है। अप् अर्थात् जल चिकित्सा द्वारा विविध रोगों की निवृत्ति होती है (अथर्व० १।४।४;१।५।१-४)। तेज अर्थात् आग्नेय, सौर तथा विद्युत् सम्बन्धी तेज भी रोगशामक हैं। वायु अर्थात् वात के लिये देखो (मन्त्र १५ की टिप्पणी)। मनुष्यजाः-मनुष्यज ओषधियों के लिये आयुर्वेद के ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं।] [(१) अथर्वा तथा अङ्गिरा पदों के "औषध अर्थ" की दृष्टि से वेद को "अथर्वाङ्गिरसः" कहा प्रतीत होता है। यथा “अथर्वाङ्गिरसो मुखम्” (अथर्व० १०/७/२०)। (२) अमास्यः="अयम् + "आस्ये" अथवा "अयते (एति) आस्ये"। (क) “यस्य कृण्मो हविर्गृहे तमग्ने वर्धया त्वम्" (यजु. १७।५) अर्थात् जिस के गृह में हम हविर्यज्ञ करते हैं उसे हे अग्नि! तू बढ़ा। इस प्रकार स्वास्थ्य तथा आयु की बृद्धि अग्निहोत्र द्वारा होने के कारण अङ्गिरा-अग्नि-औषध रूप है। अथवा 'मन को स्थिरता प्रदान करने वाली तथा अङ्गो में रसोत्पादिका ओषियां= आथर्वणी तथा आङ्गिरसी ओषधियां।]

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (अथर्वणीः आङ्गिरसीः) आथर्वणी आङ्गिरसी (देवीः मनुष्यजाः) देवी और मानुषी (उत) भी (ओषधयः) ओषधियां (प्रजायन्ते) तब उत्पन्न होती हैं (यदा) जब हे (प्राण) प्राण (त्वं जिन्वसि) तू उनको तृप्त करता है। इस मन्त्र में—‘आथर्वणी’, ‘आङ्गिरसी’, ‘देवी’ और ‘मनुष्यजा’ इन चार प्रकार की ओषधियों का वर्णन है। सायण के मत में अथर्व ऋषि की बनाई ओषधियां, आथर्वणी अङ्गिरा ऋषियों द्वारा रची ओषधियां आङ्गिरसी और देवों द्वारा रची देवी और मनुष्यों से उत्पन्न मनुष्यजा हैं। वैदिक औषधि शास्त्र में ये चार विभाग उनके विशेष विशेष उपचारों के कारण प्रतीत होते हैं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘मनुष्यजाश्च य’ (तृ०) ‘सर्वाः प्रमोदन्त्योषधी’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (प्राण यदा त्वं जिन्वसि) हे प्राण जब तू अपनी प्राणनक्रिया से संसार को जल वर्षाकर तृप्त करता है तो (आथर्वणी: आङ्गिरसीः-देवीः-उत-मनुष्यजा:-ओषधयः प्रजायन्ते) अथर्वा जनों-योगियों जीवन्मुक्तों के हितकर, अङ्गिरसों-तेजस्वी ऋषियों के निमित्त, देवों विद्वानों के हितकर, मनुष्यजा:-मनुष्यों-साधारणजनों के निमित्त उत्पन्न हुई, अथवा मनुष्य-जन्तुमात्र से "मनुष्या वै जन्तवः" (शत० ७।३।१।३२) मनुष्य आदि जन्तुमात्र के मलमूत्र आदि खाद से उत्पन्न होने वाली गेहूं आदि, दैवी:-पृथिवीस्थ मिट्टी वृष्टि जल से होने वाले यव धान आदि मुनि-अन्न, आङ्गिरसी:-चन्द्र सूर्य किरणादि के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली फल वाली वनस्पति, आथर्वणी:वायु की प्रधानता से उत्पन्न होने वाली सोम आदि रसायन अनेक श्रोषधियां उत्पन्न होती हैं ॥१६॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    All herbs and medications which are Atharvani, meant for psychic cures, Angirasi, energising tonics and tranquilizers, all Daivi, meant for sensuous purposes, and all those prepared by people in laboratories grow and mature when, O Prana, you energise, vitalise and mature them.

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    Translation

    They of the Atharvans, they of the Añgirases, they of the gods, also those born of men- the herbs are generated (pra- ja), when thou, O breath, quickenest.

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    Translation

    All the herbaceous plants known as Atharvana Angirasa Daiva and Manushyaja grow luxuriairtly when Prana quicknes them. [N.B.:—These names are given to these plants according to their effectual qualities, nature and action. Atharvan and Angiras is not proper name. They are the name of air and fire etc.]

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    Translation

    All herbs and plants spring forth and grow when Thou, O God, developest them, plants that advance our spiritual force, develop our physical strength, strengthen our organs, and are grown by men.

    Footnote

    Sayana interprets herbs produced by Atharva Rishi as Atharvani, those produced by Angira Rishis as Angirsi. This interpretation is illogical, as it snacks of history in the Vedas, which are entirely free from it.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(आथर्वणीः) अथर्वा व्याख्यातः-अ० ४।१।७। तेन प्रोक्तम्। पा० ४।३।१०१। इत्यण्, ङीप् जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। अथर्वभिर्निश्चलबुद्धिभिः प्रकाशिताः (आङ्गिरसीः) अङ्गिरा व्याख्यातः-अ० २।१२।४। पुनः पूर्ववत् सिद्धिः। अङ्गिरोभिर्विज्ञानिभिः प्रोक्ताः (दैवीः) अ० १।१९।२। देव-अञ्, अन्यत् पूर्ववत् साधु। देवाद् मेघादागता व्युत्पन्नाः (मनुष्यजाः) क्षेत्राद् मनुष्येभ्य उत्पन्नाः (ओषधयः) नानाविधा अन्नाद्याः (प्रजायन्ते) प्रकर्षेणोत्पद्यन्ते। अन्यद्गतम्-म० १४ ॥

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