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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - मध्येज्योतिर्जगती सूक्तम् - प्राण सूक्त
    63

    एकं॒ पादं॒ नोत्खि॑दति सलि॒लाद्धं॒स उ॒च्चर॑न्। यद॒ङ्ग स तमु॑त्खि॒देन्नैवाद्य न श्वः स्या॑न्न रात्री॒ नाहः॑ स्या॒न्न व्युच्छेत्क॒दा च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑म् । पाद॑म् । न । उत् । खि॒द॒ति॒ । स॒लि॒लात् । हं॒स: । उ॒त्ऽचर॑न् । यत् । अ॒ङ्ग । स: । तम् । उ॒त्ऽखि॒देत् । न । ए॒व । अ॒द्य । न । श्व: । स्या॒त् । न । रात्री॑ । न । अह॑: । स्या॒त् । न । वि । उ॒च्छे॒त् । क॒दा । च॒न ॥६.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकं पादं नोत्खिदति सलिलाद्धंस उच्चरन्। यदङ्ग स तमुत्खिदेन्नैवाद्य न श्वः स्यान्न रात्री नाहः स्यान्न व्युच्छेत्कदा चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकम् । पादम् । न । उत् । खिदति । सलिलात् । हंस: । उत्ऽचरन् । यत् । अङ्ग । स: । तम् । उत्ऽखिदेत् । न । एव । अद्य । न । श्व: । स्यात् । न । रात्री । न । अह: । स्यात् । न । वि । उच्छेत् । कदा । चन ॥६.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (हंसः) हंस [सर्वव्यापक वा सर्वज्ञानी परमात्मा] (सलिलात्) समुद्र [समुद्रसमान अपने अगम्य सामर्थ्य] से (उच्चरन्) उदय होता हुआ (एकम्) एक [सत्य वा मुख्य] (पादम्) पाद [स्थितिनियम] को (न) नहीं (उत् खिदति) उखाड़ता है। (अङ्ग) हे विद्वान् ! (यत्) जो (सः) वह [परमात्मा] (तम्) उस [नियम] को (उत्खिदेत्) उखाड़ देवे, (न एव) न तो (अद्य) आज, (न)(श्वः) कल (स्यात्) होवे, (न)(रात्री) रात्री, (न)(अहः) दिन (स्यात्) होवे, (न)(कदा चन) कभी भी (वि उच्छेत्) प्रभात होवे ॥२१॥

    भावार्थ

    जैसे हंस परमात्मा अपने अचल नियम से विचल न होकर सूर्य आदि को अपने केन्द्र पर ठहरा कर सब संसार का उपकार करता है, वैसे ही परमहंस, जितेन्द्रिय, विज्ञानी पुरुष सब प्राणियों का हित करता है ॥२१॥(हंस) शब्द का मिलान-अथर्व० १०।८।१७ तथा १८ में करो ॥

    टिप्पणी

    २१−(एकम्) इण्भीकापा०। उ० ३।४३। इण् गतौ-कन्। व्यापकम्। सत्यम्। मुख्यम् (पादम्) पद गतौ स्थैर्ये च-घञ्। स्थितिनियमम् (न) निषेधे (उत् खिदति) उद्धरति। उत्क्षिपति (सलिलात्) अ० ९।१०।९। समुद्रादिवाऽगम्यसामर्थ्यात् (हंसः) अ० १०।८।१७। वृतॄवदि०। उ० ३।६२। हन हिंसागत्योः-स। पक्षिविशेषः। सूर्यः। परमात्मा। योगिभेदः। शरीरस्थवायुविशेषः। एवमादयः-शब्दकल्पद्रुमे (उच्चरन्) उद्गच्छन् (अङ्ग) संबोधने (सः) हंसः। परमात्मा (तम्) पादम्। स्थितिनियमम् (उत्खिदेत्) उत्क्षिपेत् (नैव) न कदापि (अद्य) वर्तमानं दिनम् (न) (श्वः) आगामिदिनम् (स्यात्) (न) (न) (रात्री) (न) (अहः) दिनम् (न) (वि उच्छेत्) व्युच्छनम्, उषसः प्रादुर्भावो भवेत् (कदाचन) कदापि ॥

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    विषय

    सूर्यात्मा प्रभु

    पदार्थ

    १. (हंस:) = [हन्ति गच्छति] सर्वत्र गतिवाला जगत्प्राणभूत प्रभु (सलिलात्) = इस जलप्रवाहवत् प्रवाहरूप संसार से (उच्चरन्) = ऊपर उठता हुआ (एकं पादं नः उत्खिदति) = एक पाद [अंश] को उद्धृत नहीं करता। एक पाद को इस ब्रह्माण्ड में निश्चल स्थापित करता है। ('त्रिपादूर्ध्व उदैन पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः')। २.हे (अंग) = प्रिय! (सः) = वह ऊपर उठता हुआ सूर्यात्मा प्रभु (यत्) = यदि (तम्) = उस यहाँ निहित एक पाद को (उत्खिदेत) = उद्धृत करले तो (न एव अद्य न श्व: स्यात्) = 'आज और कल' का यह सब व्यवहार समाप्त हो जाए, (न रात्री न अहः स्यात्) = न रात हो और न दिन हो और (कदाचन) = कभी भी न (व्युच्छेत्) = [व्युच्छनम् उषस: प्रादुर्भावः] उषा का प्रादुर्भाव ही न हो। सूर्यात्मा प्रभु के अभाव में काल-व्यवहार का सम्भव है ही नहीं।

    भावार्थ

    यह जगत् सलिलवत् प्रवाहमय है। इसके निर्माता प्रभु के एकदेश में इसकी स्थिति है। प्रभु के तीन चरण इस ब्रह्माण्ड के ऊपर है, प्रभु का एक पाद ही यहाँ ब्रह्माण्ड में है। प्रभु यदि यहाँ न हों तो सूर्यादि के प्रकाश के अभाव में 'आज, कल, दिन-रात व उषा' आदि सब काल-व्यवहारों की समाप्ति ही हो जाए।

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    भाषार्थ

    (हंसः) प्राणवायु (सलिलात्) जल के समीप से (उच्चरन्) उत्थान करता हुआ, उड़ता हुआ, (एकं पादम्) एक पैर को (न उत्खिदति) नहीं उखाड़ता (अङ्ग) हे प्रिय ! (यत्) यदि (सः) वह (तम्) उसे (उत्खिदेत्) उखाड़ दे तो [व्यक्ति के लिये] (न एव अद्य) न ही आज हो, (नश्वः) न कल (स्यात्) हो, (न रात्री) न रात, (न अहः) न दिन हो, (न कदाचन व्युच्छेत्) न कभी उषा चमके ।

    टिप्पणी

    [हंस पद द्वारा प्राणवायु का वर्णन हुआ हैं। हंस जल के वासी हैं, इसलिये सलिल का प्रयोग हुआ है। प्राणवायुरूपी हंस, रक्तरूपी जल के आशयभूत हृदय के समीपस्थ फेफड़ों से उत्थान कर उड़ता है नासिका द्वारा शरीर से बाहर जाता है। बाहर उड़ कर जाता हुआ भी वह मानो अपना एक पाद शरीर के साथ जमाए रखता है। जैसे कि सूत द्वारा बद्धपाद-पक्षी कुछ दूर तक उड़ कर जाता हुआ भी अपने बन्धन के साथ बन्धा रहता है। यदि प्राण बन्धन छोड़ जाय तो, व्यक्ति की मृत्यु हो जाने से, उस के लिये आज-कल, रात्री-दिन तथा उषा आदि का व्यवहार नहीं रहता। हंसः = हन् + सः (षणु दाने) +डः। प्राण वायु के कारण शरीरगत दुर्गन्ध का हनन और नवीन वायु का प्रदान होता रहता है। शरीरगत दुर्गन्ध गन्दी वायु है, जो कि नासिका द्वारा बहिर्गत होती रहती है। सूर्य पक्ष में भी मन्त्रार्थ सुसङ्गत होता हैं]।

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (हंसः) वह परम पुरुष प्राण (सलिलात्) जिस प्रकार हंस नाम जलजीव एक पैर उठा कर भी दूसरा पैर पानी में ही स्थिर रखता है उसी प्रकार इस (सलिलात्) महान् संसार से (उच्चरत्) ऊपर मोक्षरूप में असङ्ग रह कर भी (एकं पादं) अपना एक पाद = चरण (न उत् खिदति) नहीं उठाता। इसी से यह संसार चलता है। (अङ्गः) हे जिज्ञासो ! (यत्) यदि (सः) वह परमेश्वर (तम् उत् खिदेत्) उस चरण को भी ऊपर उठाले तब (नैव अद्य न श्वः स्यात्) तो न आज और न कल हुआ करे अर्थात् (न रात्री न अहः स्यात्) न रात और न दिन हुआ करे क्योंकि कभी (न व्युच्छेत्) उषाकाल ही न हो। क्योंकि उसका सर्व प्रवर्तक चरण, चालक शक्ति संसार से उठ जाने से समस्त संसार जड़ हो जाय और न चले। न सूर्य चले न फिर उदित हो।

    टिप्पणी

    ‘हंस उत्पदम्। इमं सतमुत्खिदे अन्हें वा चनः स्योन रात्रीं नाह स्याहनः प्रज्ञा तु कि चन्न [ ? ]’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (हंसः सलिलात्-उच्चरन्-एकं पादं न-उत्खिदति) यह प्राण पखेरू हंस आत्मा के साथ स्थूल शरीर से उत्क्रमण करता हुआ सलिल सरणशील सूक्ष्म शरीर से एक पैर नहीं उठता पुनर्जन्म में आत्मा को ले जाने के लिये (अङ्ग यत् स तम्उत्खिदेत्) अरे-यदि सुक्ष्म शरीर से पैर हटाले तो (न-अद्य-न श्वः) न आज न कल हो (न रात्री न अहः स्यात्) न रात्रि का व्यवहार, न दिन का व्यवहार हो (न व्युच्छेत् कदाचन) न कभी जन्म ले यह आत्मा मोक्ष में चला जावे, अथवा प्राण के दो पैर प्राण अपान शक्तिरूप हैं यह बाहरी दृष्टि से बाहिरी उच्छ्वास फेंकता है पर एक पैर श्वासशक्ति को नहीं फेंकता यदि उसे भी उठाले तो इस मृतदेह के लिए कोई आज और कल रात दिन प्रातःकृत्य करने का व्यवहार न रहे इसी प्रकार समष्टि प्राण का एक पैर सर्जन का उठ जावे तो सृष्टि में न आज न कल न रात न दिन न उषा प्रभात हो सकें । महर्षि यास्क ने निरुक्त में सूर्य के प्रति इस मन्त्र का व्यवहार दर्शाया है सूर्य भी अपना एक पैर किसी लोक पर प्रकाश करता है । उसे उठाले तो आज कल, दिन-रात, प्रातः सायं का व्यवहार न हो सके । सूर्य भी प्राण है "प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्य:"(प्रश्नो २।८) यहाँ निरुक्त में आधिदैविक दृष्टि से जो इसी मन्त्र पर लगता है, परन्तु समस्त सूक्त तो समष्टि प्राण और व्यष्टि प्राण पर संगत होता है ॥२१॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    The Swan, rising and flying from the lake, does not take one foot off (so that while one foot is in the air, the other stays on the ground). O dear, if it were to take off the other foot also, then there would be neither now nor after, neither today nor tomorrow, there would be neither night nor day, nor would anything shine again, not even the dawn. (That would be the end of time and the world of existence.) (For detailed study of this idea refer to Prashnopanishad, Questions 2, 3, and 4. But what happens when the world of existence recedes into the dark night of Annhilation, Pralaya? Refer Rgveda, 10, 129, 2: Even then One is awake with its own potential, the One Prana of Prana which breathes without air.)

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    Translation

    The swan (hansa), ascending, does not extract (ut-khid) one foot from the sea; verily, if he should extract that, there would not be today nor tomorrow; there would not be night nor day; at no time soever would it dawn (vi-vas)

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    Translation

    This Prana as the sun rising (on earth) from the sky does not withdraw its one foot of rays from it. O People! If it withdraw that also there will no today and tomorrow, no day and no night and no dawn to shine.

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    Translation

    The Omniscient God arising out of His power unfathomable like the ocean, never renounces His one law of Truth. O learned person, if He renounced it, there would be no more tomorrow or today, never would there be night, no more would daylight shine, or morning flush.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(एकम्) इण्भीकापा०। उ० ३।४३। इण् गतौ-कन्। व्यापकम्। सत्यम्। मुख्यम् (पादम्) पद गतौ स्थैर्ये च-घञ्। स्थितिनियमम् (न) निषेधे (उत् खिदति) उद्धरति। उत्क्षिपति (सलिलात्) अ० ९।१०।९। समुद्रादिवाऽगम्यसामर्थ्यात् (हंसः) अ० १०।८।१७। वृतॄवदि०। उ० ३।६२। हन हिंसागत्योः-स। पक्षिविशेषः। सूर्यः। परमात्मा। योगिभेदः। शरीरस्थवायुविशेषः। एवमादयः-शब्दकल्पद्रुमे (उच्चरन्) उद्गच्छन् (अङ्ग) संबोधने (सः) हंसः। परमात्मा (तम्) पादम्। स्थितिनियमम् (उत्खिदेत्) उत्क्षिपेत् (नैव) न कदापि (अद्य) वर्तमानं दिनम् (न) (श्वः) आगामिदिनम् (स्यात्) (न) (न) (रात्री) (न) (अहः) दिनम् (न) (वि उच्छेत्) व्युच्छनम्, उषसः प्रादुर्भावो भवेत् (कदाचन) कदापि ॥

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