अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
66
यस्ते॑ प्राणे॒दं वे॑द॒ यस्मिं॑श्चासि॒ प्रति॑ष्ठितः। सर्वे॒ तस्मै॑ ब॒लिं ह॑रान॒मुष्मिं॑ल्लो॒क उ॑त्त॒मे ॥
स्वर सहित पद पाठय:। ते॒ । प्रा॒ण॒ । इ॒दम् । वेद॑ । यस्मि॑न् । च॒ । असि॑ । प्रति॑ऽस्थित: । सर्वे॑ । तस्मै॑ । ब॒लिम् । ह॒रा॒न् । अ॒मुष्मि॑न् । लो॒के । उ॒त्ऽत॒मे ॥६.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते प्राणेदं वेद यस्मिंश्चासि प्रतिष्ठितः। सर्वे तस्मै बलिं हरानमुष्मिंल्लोक उत्तमे ॥
स्वर रहित पद पाठय:। ते । प्राण । इदम् । वेद । यस्मिन् । च । असि । प्रतिऽस्थित: । सर्वे । तस्मै । बलिम् । हरान् । अमुष्मिन् । लोके । उत्ऽतमे ॥६.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
प्राण की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] (यः) जो [पुरुष] (ते) तेरे (इदम्) इस [महत्त्व] को (वेद) जानता है, (च) और (यस्मिन्) जिस [पुरुष] में तू (प्रतिष्ठितः) दृढ़ ठहरा हुआ (असि) है। (सर्वे) सब [प्राणी] (अमुष्मिन्) उस (उत्तमे) उत्तम (लोके) लोक [स्थान] पर [वर्तमान] (तस्मै) उस [पुरुष] के लिये (बलिम्) बलि [उपहार] (हरान्) लावें ॥१८॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमेश्वर के महत्त्व को साक्षात् करके उसे अपने हृदय में दृढ़ करता है, वह पुरुष संसार में सबसे उच्च स्थान पाता है ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(यः) पुरुषः (ते) तव (प्राण) (इदम्) महत्त्वम् (वेद) जानाति (यस्मिन्) पुरुषे (च) (असि) (प्रतिष्ठितः) दृढं स्थितः (सर्वे) प्राणिनः (तस्मै) पुरुषाय (बलिम्) उपहारम् (हरान्) हरतेर्लेटि आडागमः। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इकारलोपः, संयोगान्तलोपः। हरन्तु प्रापयन्तु (अमुष्मिन्) तस्मिन् प्रसिद्धे (लोके) स्थाने वर्तमानाय (उत्तमे) श्रेष्ठे ॥
विषय
प्रभुस्मरण व अमृतत्व
पदार्थ
१. हे (प्राण) = प्राणशक्ति के पुञ्ज प्रभो! (ते) = आपके इदम् इस ऊपर वर्णित माहात्म्य को (यः) = वेद जो जानता है, (यस्मिन् च) = और जिस विद्वान् में (प्रतिष्ठित: असि) = आप भाव्यमान [सदा स्मरणीय] होते हो, तस्मै उस ज्ञानी पुरुष के लिए (अमुष्मिन् उत्तमे लोके) = उस स्वर्गतुल्ब उत्तम लोक में सर्वे सब देव-सूर्य, चन्द्र, विद्युत, अग्नि आदि प्राकृतिक शक्तियाँ-(बलिम्) = अमृतमय भाग को (हरान्) = प्राप्त कराते हैं, एवं यह प्रकाशमय व स्वस्थ जीवनवाला होता है।
भावार्थ
प्रभु-महिमा को जानने व स्मरण करनेवाला पुरुष स्वर्गतुल्य उत्तम लोक में निवास करता है। सूर्य-चन्द्र आदि सब देवों की उसके लिए अनुकूलता होकर उसे अमृतत्व [नीरोगता] प्राप्त होती है।
भाषार्थ
(प्राण) हे प्राण ! (यः) जो (ते) तेरे (इदम्) इस स्वरूप को (वेद) जानता है, (च) और (यस्मिन्) जिस में तू (प्रतिष्ठितः असि) स्थित हो जाता है, (तस्मै) उस के लिये (सर्वे) सब (अमुष्मिन्, उत्तमे, लोके) उस उत्तम लोक में (बलिम्, हरान्) भेंट प्रदान करते हैं।
टिप्पणी
[हरान् = हरन्ति; लेट् लकार, "इतश्च लोपः परस्मैपदेषु (अष्टा० ३।४।९७) तथा संयोगान्तलोपश्च। अमुष्मिन् लोके= उस उत्तम प्रदेश या स्थान में रहने वाले के लिये, या भावी उत्तम जन्म में भी भेंट प्रदान करते हैं। मन्त्र में प्राण द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है, वह प्राणों का प्राण है। प्रतिष्ठितः = जिस व्यक्ति में हे प्राण परमेश्वर ! तू अपनी स्थिति कर लेता है, और जो अपने में तुझे स्थित हुआ अनुभव कर तेरी प्रेरणा के अनुसार जीवनचर्या करता है, वह सब के लिये पूज्य देवतारूप हो जाता है, और सब लोग उपहारों द्वारा उस का सत्कार करते रहते हैं]।
विषय
प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे (प्राण) प्राण ! परमेश्वर ! (यः ते इदं वेद) जो तेरे इस तत्व को साक्षात् जान लेता है और (यस्मिन् च) जिस परम रूप में, ज्ञान रूप में (प्रतिष्ठितः, असि) तू प्रतिष्ठित होकर रहता है (तस्मै) उसको (सर्वे) सब (अमुष्मिन् उत्तमे लोके) उस परम उत्तम लोक में भी (बलिं हरन्ति) बलि, पूजोपहरादि द्रव्य (हरान्) उपस्थित करते हैं। उसका आदर सत्कार करते हैं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘यस्ते प्राण इदं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(प्राण ते इदं वेद) हे प्राण तेरे इस महत्त्व को जो जानता है (यस्मिन् च प्रतिष्ठित:-असि) जिस सुप्रयोक्ता में प्रतिष्ठित हो जाता है (तस्मै सर्वे बलिं हरान्) उसके लिये सब फल लाभ समर्पित करते हैं। (मुष्मिन्-उत्तमे लोके) उस उत्कृष्ट मोक्ष के निमित्त-उसकी प्राप्ति के लिये ॥१८॥
विशेष
ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
इंग्लिश (4)
Subject
Prana Sukta
Meaning
O Prana, whoever knows this of your power and vital energy, in whosoever you are established in a state of meditative stability, all bring him gifts of homage in that highest state of attainment.
Translation
He who knoweth this of thee, O breath, and in whom thou art established -- to him shall all bring tribute in yon highest world.
Translation
One who knows this power of the Prana, and in whom this Prana is well established (through the forces and practice of Yoga) has his presents and felicitations from all the people.
Translation
The man who knows this grandeur of Thee, O God, in which Thou abidest, to him will all present their gift of tribute in that excellent world!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(यः) पुरुषः (ते) तव (प्राण) (इदम्) महत्त्वम् (वेद) जानाति (यस्मिन्) पुरुषे (च) (असि) (प्रतिष्ठितः) दृढं स्थितः (सर्वे) प्राणिनः (तस्मै) पुरुषाय (बलिम्) उपहारम् (हरान्) हरतेर्लेटि आडागमः। इतश्च लोपः परस्मैपदेषु। पा० ३।४।९७। इकारलोपः, संयोगान्तलोपः। हरन्तु प्रापयन्तु (अमुष्मिन्) तस्मिन् प्रसिद्धे (लोके) स्थाने वर्तमानाय (उत्तमे) श्रेष्ठे ॥
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