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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    72

    अपा॑नति॒ प्राण॑ति॒ पुरु॑षो॒ गर्भे॑ अन्त॒रा। य॒दा त्वं प्रा॑ण॒ जिन्व॒स्यथ॒ स जा॑यते॒ पुनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । अ॒न॒ति॒ । प्र । अ॒न॒ति॒ । पुरु॑ष: । गर्भे॑ । अ॒न्त॒रा । य॒दा । त्वम् । प्रा॒ण॒ । जिन्व॑सि । अथ॑ । स: । जा॒य॒ते॒ । पुन॑: ॥६.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपानति प्राणति पुरुषो गर्भे अन्तरा। यदा त्वं प्राण जिन्वस्यथ स जायते पुनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । अनति । प्र । अनति । पुरुष: । गर्भे । अन्तरा । यदा । त्वम् । प्राण । जिन्वसि । अथ । स: । जायते । पुन: ॥६.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुषः) पुरुष (गर्भे अन्तरा) गर्भ के भीतर (प्र अनति) श्वास लेता है और (अप अनति) प्रश्वास [बाहिर को श्वास] लेता है। (यदा) जब (त्वम्) तू, (प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] (जिन्वसि) तृप्त करता है, (अथ) तब (सः) वह [पुरुष] (पुनः) फिर (जायते) उत्पन्न होता है ॥१४॥

    भावार्थ

    परमेश्वर के सामर्थ्य से प्राणी गर्भ के भीतर श्वास-प्रश्वास लेता और पूरे दिन होने पर उत्पन्न होता है ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(अपानति) प्रश्वसिति (प्राणति) प्राणव्यापारं करोति (पुरुषः) प्राणी (गर्भे) गर्भाशये (अन्तरा) मध्ये (यदा) यस्मिन्काले (त्वम्) (प्राण) हे जीवनप्रद परमेश्वर (जिन्वसि) जिवि प्रीणने। प्रीणयसि। सन्तोषयसि। तर्पयसि (अथ) तदा (सः) पुरुषः (जायते) उत्पद्यते (पुनः) पश्चात् ॥

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    विषय

    सर्वोत्पादक 'प्राण'

    पदार्थ

    १. (पुरुषः) = अन्न-रस परिणामरूप शरीर को धारण करनेवाला पुरुष (गर्भे अन्तरा) = स्त्री के गर्भाशय के मध्य में (अपानति प्राणति) = प्राण का प्रवेश होने पर अपान व प्राणन-व्यापारों को करता है। हे प्राण! तु शुक्रशोणितावस्था में ही पुरुषशरीर में प्रवेश करके उसके परिणाम के लिए प्राणापान वृत्तियों को पैदा करता है। २. हे (प्राण) = प्राणात्मन् प्रभो! (यदा) = जब आप (जिन्वसि) = गर्भीभूत पुरुष को मातृयुक्त आहार से परिणत अन्न-रस से प्रीणित[पुष्ट] करते हो, (अथ) = तब ही (सः पुन: जायते) = वह पुरुष स्वार्जित परिपक्व पुण्य-पाप के फल के उपभोग के लिए पुनः भूमि पर उत्पन्न होता है।

    भावार्थ

    मातृगर्भ में प्राण का प्रवेश होने पर ही प्राणापान का व्यापार चलता है। प्राण ही गर्भीभूत पुरुष को पुष्ट करके पृथिवी पर जन्म देता है।

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    भाषार्थ

    (पुरुषः) पुरुष (गर्भे) मातृगर्भ के (अन्तरा) भीतर (अपानति, प्राणति) अपान और प्राण की क्रियाएं करता है। (प्राण) हे प्राण ! (यदा) जब (त्वम्) तू (जिन्वसि) उसे पुरिपुष्ट कर देता है (अथ) तव (सः) वह (पुनः जायते) पुनर्जन्म लेता है।

    टिप्पणी

    [पुरुषः = शरीर-पुरी में शयन करने वाला या वास करने वाला जीवात्मा। जीवात्मा का शरीर धारण करना ही उस का जन्म है। इस लिये जीवात्मरूप से, मन्त्र में, स्त्री-पुरुष दोनों का वर्णन है]।

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (गर्भे अन्तरा) गर्भ और विराट् हिरण्यगर्भ दोनों में (पुरुषः) पुरुष आत्मा (अपानति प्राणति) श्वास छोड़ता और श्वास लेता है। अर्थात् वही प्राण और अपान दोनों वायुओं का व्यापार करता हैं। हे (प्राण) प्राण ! (यदा त्वं जिन्वसि) जब तू उस गर्भस्थ बालक को परितृप्त और परिपुष्ट कर देता है (अथ) तब (सः पुनः) वह फिर (जायते) बालक रूप में उत्पन्न होता है। हिरण्यगर्भ में वह महान् पुरुष प्राण डालता है और तब इसमें नाना लोक उत्पन्न होते हैं।

    टिप्पणी

    (द्वि० तृ० च०) ‘गर्भे अन्तः। या वा त्वं प्राणजीव सदम्ब वायसेत्वत्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (गर्भे अन्तरा) गर्भ के अन्दर (पुरुष: प्राणति-अपानति) आत्मा प्राण श्वास लेता है और पान-उच्छ्वास लेता है (प्राण यदा त्वं जिन्वसि-अथ पुनः सः-जायते) हे प्राण जब तू उसे तृप्त करता है - पुष्ट करता है, पूर्ण करता है तो वह फिर जन्मता है ॥१४॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    The human baby in the womb inhales Prana and exhales Apana. O Prana, when you have matured the foetus, the baby is born again.

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    Translation

    A man breathes out (apanati), breathes (pranati) within the womb; when O breath, thou quickenest, then he is born again.

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    Translation

    The jiva in mother’s womb draws vital breath and sends it out. When this Prana quickens the babe in womb it comes out of the womb (takes birth).

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    Translation

    The soul inhales and exhales in the womb. When thou, O God, develops the babe it springs anew to life!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(अपानति) प्रश्वसिति (प्राणति) प्राणव्यापारं करोति (पुरुषः) प्राणी (गर्भे) गर्भाशये (अन्तरा) मध्ये (यदा) यस्मिन्काले (त्वम्) (प्राण) हे जीवनप्रद परमेश्वर (जिन्वसि) जिवि प्रीणने। प्रीणयसि। सन्तोषयसि। तर्पयसि (अथ) तदा (सः) पुरुषः (जायते) उत्पद्यते (पुनः) पश्चात् ॥

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