अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 20
ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुब्गर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
69
अ॒न्तर्गर्भ॑श्चरति दे॒वता॒स्वाभू॑तो भू॒तः स उ॑ जायते॒ पुनः॑। स भू॒तो भव्यं॑ भवि॒ष्यत्पि॒ता पु॒त्रं प्र वि॑वेशा॒ शची॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त: । गर्भ॑: । च॒र॒ति॒ । दे॒वता॑सु । आऽभू॑त: । भू॒त: । स: । ऊं॒ इति॑ । जा॒य॒ते॒ । पुन॑: । स: । भू॒त: । भव्य॑म् । भ॒वि॒ष्यत् । पि॒ता । पु॒त्रम् । प्र । वि॒वे॒श॒ । शची॑भि:॥६.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तर्गर्भश्चरति देवतास्वाभूतो भूतः स उ जायते पुनः। स भूतो भव्यं भविष्यत्पिता पुत्रं प्र विवेशा शचीभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त: । गर्भ: । चरति । देवतासु । आऽभूत: । भूत: । स: । ऊं इति । जायते । पुन: । स: । भूत: । भव्यम् । भविष्यत् । पिता । पुत्रम् । प्र । विवेश । शचीभि:॥६.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
प्राण की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(सः उ) वही [परमेश्वर] (आभूतः) सब ओर से व्याप्त और (भूतः) वर्तमान होकर (देवतासु अन्तः) सब दिव्य पदार्थों के भीतर (गर्भः) गर्भ [के समान] (चरति) विचरता है और (पुनः) फिर (जायते) प्रकट होता है। (सः) उस (भूतः) वर्तमान [परमेश्वर] ने (भव्यम्) होनहार (भविष्यत्) आगामी जगत् में (शचीभिः) अपने कर्मों से (प्र विवेश) प्रवेश किया है, [जैसे] (पिता) पिता (पुत्रम्) पुत्र में [उत्तम शिक्षादान से प्रवेश करता है] ॥२०॥
भावार्थ
नित्य अनादि परमेश्वर सब पदार्थों के भीतर और बाहिर परिपूर्ण होकर भूत भविष्यत् और वर्तमान में सबका उपकार करता है, जैसे पिता पुत्र को शिक्षा दान करता है ॥२०॥
टिप्पणी
२०−(अन्तः) मध्ये (गर्भः) गर्भो यथा (चरति) गच्छति। व्याप्नोति (देवतासु) देवेषु। दिव्यपदार्थेषु (आभूतः) समन्ताद् व्याप्तः (भूतः) वर्तमानः। नित्यः (सः) प्राणः परमेश्वरः (उ) एव (जायते) प्रादुर्भवति (पुनः) पश्चात् (सः) प्राणः (भूतः) नित्यः (भव्यम्) भावि (भविष्यत्) उत्पत्स्यमानं जगत् (पिता) रक्षको जनकः (पुत्रम्) (प्र विवेश) प्रविष्टवान् (शचीभिः) कर्मभिः-निघ० २।१। प्रज्ञाभिः-निघ० ३।९ ॥
विषय
गर्भरूप से रहनेवाला 'प्राण' प्रभु
पदार्थ
१. (देवतासु) = सूर्य, चन्द्र, विद्यत, अग्नि आदि सब देवों में (गर्भ:) = गर्भरूप होता हुआ (अन्त:चरति) = अन्दर विचरण करता है। (आभूतः) = समन्तात् व्याप्त हुआ-हुआ (भूत:) = [जातः] नित्य होता हुआ (स: उ) = वह प्राण ही (पुनः जायते) = उस-उस शरीर के साथ फिर उत्पन्न-सा होता है। २. (भूत:) = नित्य वर्तमान (स:) = यह प्राण (भूतम्) = भूतकालावच्छिन्न वस्तु को, (भविष्यत्) = भाविकालावच्छिन्न उत्पत्स्यमान वस्तु को (शचीभिः) = अपनी शक्तियों से (प्रविवेश) इसप्रकार प्रविष्ट होता है, जैसेकि (पिता पुत्रम्) = पिता अपने पुत्र में अपने अवयवों से प्रविष्ट होता है। प्राण पिता है, यह उत्पन्न जगत् उसका पुत्र है। इसमें वह प्रविष्ट है।
भावार्थ
सूर्यादि सब देवों में वह प्राणात्मा प्रभु प्रविष्ट हुए-हुए हैं, इसी से ये देव देवत्व को प्राप्त हुए हैं। भूत, भविष्यत् सभी वस्तुओं में प्रभु ही अपनी शक्तियों से प्रविष्ट हैं।
भाषार्थ
(घाभूतः) सर्वत्र विद्यमान, (भूतः) अनादि परमेश्वर (देवतासु अन्तः) सूर्यादि दिव्य पदार्थों के भीतर (गर्भः) गर्भीभूत हुआ (चरति) विचरता है, (सः उ) वह ही (पुनः) बार-बार (जायते) सृष्टियों में प्रकट होता है। (सः) वह (भूतः) अनादि (पिता) परमेश्वर-पिता (शचीभिः) अपने कर्तव्यों और प्रज्ञाओं के साथ (पुत्रम्) पुत्रभूत सब प्राणियों तथा अप्राणियों में (प्रतिवेश) प्रविष्ट हुआ है।
टिप्पणी
[शचीभिः = कर्म (निघं० २।१); प्रजा (निघं० ३।९)। गर्भः= जैसे माता में स्थित गर्भ अज्ञायमान स्वरूप होता है, परमेश्वर दिव्यपदार्थों में विद्यमान भी अज्ञायमान स्वरूप होता है, वह केवल अनुमेय ही होता है। परन्तु गर्भ जैसे उत्पत्ति पर प्रत्यक्ष ही होता है, इसी प्रकार परमेश्वर हृदय में प्रत्यक्ष होकर प्रकट होता है]।
विषय
प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(देवतासु) समस्त दिव्य पदार्थों में, पञ्चभूत पृथिवी, अप् तेज = वायु आकाश आदि में वह ‘प्राण’ ही (गर्भः) ग्रहणशक्ति, धारणशक्ति होकर (अन्तः चरति) उनके भीतर व्यापक होकर समस्त क्रिया करता है। (सः) वहीं (आभूतः) सर्वव्यापक होकर (भूतः) उत्पन्न जगत् रूप में प्रकट होकर (पुनः जायते) फिर सृष्टिरूप में उत्पन्न होता है। वह (भूतः) सत्तावान्, नित्य प्राण वर्त्तमान (भव्यं भविष्यत्) ‘भव्य’ आगे उत्पन्न होने योग्य, भविष्यत् रूप में अपनी (शचीभिः) शक्तियों द्वारा इस प्रकार (प्र विवेश) प्रविष्ट रहता है जिस प्रकार (पिता पुत्रम्) पिता अपने सूक्ष्म अवयवों और संस्कारों से युक्त बीज द्वारा पुत्र में प्रविष्ट रहता है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘स भूतो भूते भविष्यत्’ इति सायणाभिमतः पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(देवतासु-आभूतः-भूतः) देवताओं में व्याप्त हुआ प्राण (गर्भः-अन्तः-चरित) गर्भ होकर विचरता है (सः-उ-पुनः जायते) वह ही पुन: उत्पन्न हो जाता है - पुनर्जन्म लेता है (स: भूतः-भव्यं भविष्यत्) वह भूत, वर्तमान और भविष्य में सदाकाल (पिता पुत्रं शचीभिः प्रविवेश) पिता पुत्र के रूप में होकर अपनी कर्म प्रवृत्तियों से “शची कर्म नाम" (नि० २।१) प्रवेश करता है ॥२०॥
विशेष
ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
इंग्लिश (4)
Subject
Prana Sukta
Meaning
Prana, vibrant in the divinities, in the mind and senses, is active in the womb of life as well. That which was born and manifest earlier is born and manifest again. It is past, present and future, all. The father pervades and manifests in the child with all his power and potentials, so does the universal father, Prana.
Translation
He moves, an embryo, within the divinities: having come into being (? abhuta), having been (bhuta), he is born again; he, having been, entered with might (Sacibhis) what is to be. what will be, (as) a father a son
Translation
This Prana which plays its parts in the organs etc. operates its functions in the embryo. It is that which existed in past and same to same it exists in present and in future. As father enter the form of his son by his potentialities so this Prana (in the bodies coming out in future).
Translation
The All-pervading, Eternal God abidest in the midst of all the forces of nature, and exhibits Himself, when He creates again the universe. The Eternal God has pervaded with His powers the beautiful future world, as a father-his son by giving him sound education.
Footnote
God creates the universe, dissolves it, and recreates it through His wonderful powers. This process of creation, and dissolution is eternal.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०−(अन्तः) मध्ये (गर्भः) गर्भो यथा (चरति) गच्छति। व्याप्नोति (देवतासु) देवेषु। दिव्यपदार्थेषु (आभूतः) समन्ताद् व्याप्तः (भूतः) वर्तमानः। नित्यः (सः) प्राणः परमेश्वरः (उ) एव (जायते) प्रादुर्भवति (पुनः) पश्चात् (सः) प्राणः (भूतः) नित्यः (भव्यम्) भावि (भविष्यत्) उत्पत्स्यमानं जगत् (पिता) रक्षको जनकः (पुत्रम्) (प्र विवेश) प्रविष्टवान् (शचीभिः) कर्मभिः-निघ० २।१। प्रज्ञाभिः-निघ० ३।९ ॥
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