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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    87

    नम॑स्ते अस्त्वाय॒ते नमो॑ अस्तु पराय॒ते। नम॑स्ते प्राण॒ तिष्ठ॑त॒ आसी॑नायो॒त ते॒ नमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । आ॒ऽय॒ते । नम॑: । अ॒स्तु॒ । प॒रा॒ऽय॒ते । नम॑: । ते॒ । प्रा॒ण॒ । तिष्ठ॑ते । आसी॑नाय । उ॒त । ते॒ । नम॑: ॥६.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते अस्त्वायते नमो अस्तु परायते। नमस्ते प्राण तिष्ठत आसीनायोत ते नमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । ते । अस्तु । आऽयते । नम: । अस्तु । पराऽयते । नम: । ते । प्राण । तिष्ठते । आसीनाय । उत । ते । नम: ॥६.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (7)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (आयते) आते हुए [पुरुष] के हित के लिये (ते) तुझे (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो, (परावते) जाते हुए के हित के लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो। (प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] (तिष्ठते) खड़े होते हुए के हित के लिये (नमः) नमस्कार, (उत) और (आसीनाय) बैठे हुए के हित के लिये (ते) तुझे (नमः) नमस्कार (अस्तु) हो ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य अपनी चेष्टाओं से उपकार लेता हुआ परमेश्वर का धन्यवाद करे ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(नमः) नमस्कारः (ते) तुभ्यम् (अस्तु) भवतु (आयते) आगच्छते पुरुषाय (परायते) बहिर्गच्छते (प्राण) हे जीवनप्रद परमेश्वर (तिष्ठते) स्थितिं कुर्वते (आसीनाय) उपविष्टपुरुषहिताय (उत) अपि च। अन्यद् गतम् ॥

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    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    हे प्राण! तू वास्तव में शुद्ध और पवित्र है। परमात्मा की देन है। संसार में ओत प्रोत हो रहा है। वेद में प्राणों को भी नमः कहा गया है। हमारे शरीर को पवित्र बनाने वाले प्राण! आ, हमारा कल्याण कर। हम अपना कल्याण चाहते हैं। हे भगवन्! हमें सोम का पान करा। हे भगवन्! हम तेरे द्वारा अमृत पान करने आए हैं। प्राण को कहा कि हे प्राण! तुम नाभि चक्र से और घ्राण के द्वारा अन्तरिक्ष में से ऊँचे परमाणु लाओ और जो अशुद्ध परमाणु हैं उनको दूर ले जाओ। यदि कार्य प्राण को अर्पित कर दिया।

    वायुमण्डल में जितने अशुद्ध परमाणु वह त्यागता है उतने शुद्ध परमाणुओं को वह लाता है शरीर में मुनिवरों! देखो, परमाणुओं का आवागमन हो रहा है और कैसी परमाणुवाद है? ऋषि मुनियों ने उन परमाणुओं की गणना की है। लगभग ८५ खरब के लगभग एक श्वांस में परमाणु जाते हैं मानव के शरीर से। मैं उसकी गणना पूर्ण रूप से नहीं कर रहा हूँ। वाक्य केवल यह कि वे जो परमाणु हैं वे इतने हो जाते हैं और वे अन्तरिक्ष से इतने ही लेता है।

    यह जो तुम्हे दृष्टिपात आ रहे है देवता, इन दिशाओं का कोई सूत्र है और जो सूत्र है वही ब्रह्म है। मेरे प्यारे! प्राणो वै यह चक्र चल रहा है। प्राण ही सूत्र है। एक एक परमाणु में, प्राण परणित हो रहा है। मेरे प्यारे! यहाँ प्राण एक सूत्र रूप में स्वीकार किया।

    मेरे प्यारे! वायुमण्डल वह है जहां वह श्वांस लेते हैं और श्वांस ले करके वह हमारे मन मस्तिष्क को ऊर्ध्वा में ले जाता है। और वह श्वांस जब हम परमाणु को हम बाह्य जगत में लाते हैं, तो वही श्वांस मानो अशुद्ध परमाणुओं को बाह्य जगत में प्रवेश कर देता है तो बाह्य जगत और आन्तरिक जगत दोनों, उसकी महानता में परणित हो गए और उसी में वह निहित हो गया है। तो दोनों प्रकार की आभाओं को ले करके गमन किया।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = हे  ( प्राण ) = जीवनदाता परमेश्वर  ( आयते ) = आते हुए पुरुष के हित के लिए  ( ते नमः ) = आपको नमस्कार  ( अस्तु ) = हो ।  ( परायते ) =  बाहिर जाते हुए पुरुष के लिए  ( ते नमः ) = आपको नमस्कार हो ।  ( तिष्ठते ) = खड़े हुए पुरुष के हित के लिए  ( नमः ) = आपको नमस्कार हो ।  ( उत ) =  और  ( आसीनाय ) = बैठे हुए पुरुष के हित के लिए  ( ते नमः ) = आपको नमस्कार हो ।
     

    भावार्थ

    भावार्थ = मनुष्यमात्र को चाहिये कि अपने किसी बन्धुवर्ग व मित्र के आने-जाने में परमात्मा से प्रार्थना करे और अपने लिए भी उस परमात्मा से हर एक चेष्टा में प्रार्थना करे, जिससे अपने मित्रों के और अपने काम निर्विघ्नता से सम्पूर्ण हों ।

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    विषय

    सब क्रियाओं का निर्वर्तक 'प्राण'

    पदार्थ

    १. प्रभु-प्रदत्त प्राणशक्ति से ही सब कार्यों की सिद्धि होती है। आगमनादि सब क्रियाएँ प्राण-व्यापार से ही निर्वर्त्य हैं, अत: कहते हैं कि हे प्राण! आयते ते नमः अस्तु-आगमन क्रिया करते हुए तेरे लिए नमस्कार हो। परायते नमः अस्तु-पराङ्मुख जाते हुए तेरे लिए नमस्कार हो। हे प्राण । तिष्ठते ते नम:-जहाँ कहीं भी स्थित हुए-हुए तेरे लिए नमस्कार हो, उत-और आसीनाय ते नम:-उपविष्ट हुए-हुए तेरे लिए नमस्कार हो।

    भावार्थ

    प्रभु-प्रदत्त प्राणों से होती हुई विविध क्रियाओं को देखकर हम प्रभु के प्रति प्रणत हो।

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    भाषार्थ

    (प्राण) हे प्राण ! (आयते) आते हुए (ते) तुझे (नमः अस्तु) नमस्कार हो, (परायते) परे जाते हुए (नमः, अस्तु) नमस्कार हो। (तिष्ठते) स्थिर होते हुए (ते) तुझे (नमः) नमस्कार हो, (उत) तथा (आसीनाय) बैठे हुए (ते नमः) तुझे नमस्कार हो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में प्राणापान अर्थात् श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया द्वारा, ब्रह्माण्ड के प्राण को नमस्कार किया गया है। श्वासोच्छ्वास में नासिका द्वारा प्राण फेफड़ों के भीतर आता, तथा भीतर से बाहिर जाता है। प्राणायाम की विधि द्वारा शनैः-शनैः वह स्थिरता लाभ करता, अर्थात् श्वासोच्छ्वास की गति में विच्छेद अर्थात् कालिक अभाव होने लगता है और कालान्तर के अभ्यास द्वारा पूर्ण-गति विच्छेद हो जाता है। इन दो गतिविच्छेदों को अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक कुम्भक कह सकते हैं। विशेष परिज्ञान के लिये देखो योग २।४९-५१ पर व्यास भाष्य। आयते = पूरक; परायते= रेचक; तिष्ठते= आभ्यन्तर कुम्भक; आसीनाय= सम्भवतः बाह्य कुम्भक१ अल्पकाल और क्रमशः अधिकाधिक काल तक चित्त की स्थिरता के अनुसार परमेश्वर का दर्शन भी अल्पाधिक काल तक होने लगता है। पहिले परमेश्वर का अत्यल्प काल के लिये दर्शन होता (आयते); और पुनः दर्शन का अभाव हो जाता, विलोप हो जाता (परायते)। कालान्तर में दर्शन अधिक काल के लिये स्थिर हो जाता (तिष्ठते); और अभ्यास के पूर्णतया परिपक्व हो जाने पर परमेश्वर मानो चित्त में आसीन हो जाता (आसीनाय)। चित्त में दृष्ट परमेश्वर के प्रतियोगी के नमस्कारों का वर्णन मन्त्र में हुआ है। आयते = चित्त में परमेश्वर का आना अर्थात् दर्शन देना। परायते = चित्त से परे-चला जाना, अर्थात् दर्शन का विलोप हो जाना। इस प्रकार का अभिप्राय "तिष्ठते" और 'आसीनाय' का है। मन्त्र में प्राण-अपान या श्वास-उच्छ्वास रूप वायु के प्रति नमस्कार अभिप्रेत नहीं। इस सम्बन्ध में मन्त्र ७ और मन्त्र ११।२।१५ में समता और विषमता द्रष्टव्य है। मन्त्र ११।२।१५ निम्नलिखित है। यथा “नमस्तेस्त्वायते नमो अस्तु परायते। नमस्ते रुद्र तिष्ठते आसीनायोत ते नमः"। इन दोनों मन्त्रों में "रुद्र और प्राण" पदों के अतिरिक्त पूरी शाब्दिक समता है। "रुद्र" पद चेतन- देवता को सूचित करता है। इस लिये वर्ण्य मन्त्र में भी "प्राण" से अभिप्राय, ब्रह्माण्ड का प्राणभूत परमेश्वर ही प्रतीत होता है]। [(१) प्राणायाम के ४ भाग। अथवा चतुर्थ भाग= "बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः” (योग २।५१)।]

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे प्राण ! (आयते) आते हुए (ते नमः अस्तु) तुझे नमस्कार हो। (परायते) जाते समय तुझे (नमः अस्तु) नमस्कार हो। हे प्राण (तिष्ठते ते नमः) स्थिर होते हुए तुझे नमस्कार है। (आसीनाय उत ते नमः) बैठे हुए तुझे नमस्कार है। समस्त पदार्थों और जीवों में ये क्रियाएं उसी प्राण के बल पर हैं अतः उनकी वे वे दशायें ‘प्राण’ की ही हैं। उन उन दशाओं में वर्त्तमान ‘प्राण’ का हम आदर करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘तेऽस्तु’, ‘नमोऽस्तु’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (प्राण ते आयते नमः अस्तु) हे प्राण तुझ अन्दर आते हुए के लिये स्वागत हो (परायतं नमः अस्तु) बाहर जाते हुए के लिये स्वागत हो (प्राण ते तिष्ठते नमः) हे प्राण ! तुझ अन्दर ठहरे हुए के लिए स्वागत हो (उत ते आसीनाय नम:) अपि च तुझ बाहिर फैले हुए के लिए स्वागत हो ।वृक्ष आदि स्थावरों के अन्दर सूक्ष्म गति से प्राण आता है और जाता है तथा वह अन्दर भी ठहरता है और उनके बाहिर भी कुछ काल ठहरता है सभी दशाओं में वह स्वागत करने योग्य है ॥ ७ ॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    Homage to you, Prana, as you come in, homage to you as you go out, homage to you, Prana, held up within in Kumbhaka, homage to you, controlled and stabilised.

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    Translation

    Homage be to thee coming, homage be to (thee) going away; homage to thee, O breath, standing; to thee sitting also (be) homage.

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    Translation

    We express our praise for the Prana when it comes near, and when it departs hence. Our admiration for Prana goes on when it is in stability and when at rest.

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    Translation

    O God, homage to Thee for the good of the man coming homage to Thee, for the good of the man departing, homage to Thee for the good of the man standing, homage to Thee for the good of the man sitting!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(नमः) नमस्कारः (ते) तुभ्यम् (अस्तु) भवतु (आयते) आगच्छते पुरुषाय (परायते) बहिर्गच्छते (प्राण) हे जीवनप्रद परमेश्वर (तिष्ठते) स्थितिं कुर्वते (आसीनाय) उपविष्टपुरुषहिताय (उत) अपि च। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

     

    নমস্তে অস্ত্বায়তে নমো অস্ত পরায়তে।

    নমস্তে প্রাণ তিষ্ঠতে আসীনায়োত তে নমঃ ।।৫০।।

    (অথর্ব ১১।৪।৭)

    পদার্থঃ হে (প্রাণ) জীবনদাতা পরমেশ্বর! (আয়তে) যে ব্যক্তি আগমন করে, তার মঙ্গলের জন্য (তে নমঃ) তোমাকে নমস্কার (অস্তু) করি। (পরায়তে) যে ব্যক্তি বাইরে গমন করে, তার মঙ্গলের জন্য (তে নমঃ) তোমাকে নমস্কার (অস্তু)‌ করি। (তিষ্ঠতে) যে ব্যক্তি দণ্ডায়মান, তার মঙ্গলের জন্য (তে নমঃ) তোমাকে নমস্কার (উত) এবং (আসীনায়) যে ব্যক্তি বসে আছে, তার মঙ্গলের জন্যও (তে নমঃ) তোমাকে নমস্কার।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ মানুষ মাত্রের উচিত যে কোন বন্ধুবর্গের আসা-যাওয়ার সময় তাদের জন্য পরমাত্মার নিকট প্রার্থনা করা এবং নিজের জন্যও সেই পরমাত্মার নিকট প্রতি কর্মের আগে প্রার্থনা করা যেন ব্যক্তি নিজে এবং তার মিত্রগণের কাজ নির্বিঘ্নে সম্পন্ন হয় ।।৫০।।

     

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