अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 24
ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
59
यो अ॒स्य स॒र्वज॑न्मन॒ ईशे॒ सर्व॑स्य॒ चेष्ट॑तः। अत॑न्द्रो॒ ब्रह्म॑णा॒ धीरः॑ प्रा॒णो मानु॑ तिष्ठतु ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य । स॒र्वऽज॑न्मन: । ईशे॑ । सर्व॑स्य । चेष्ट॑त: । अत॑न्द्र: । ब्रह्म॑णा । धीर॑: । प्रा॒ण: । मा॒ । अनु॑ । ति॒ष्ठ॒तु॒ ॥६.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य सर्वजन्मन ईशे सर्वस्य चेष्टतः। अतन्द्रो ब्रह्मणा धीरः प्राणो मानु तिष्ठतु ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । सर्वऽजन्मन: । ईशे । सर्वस्य । चेष्टत: । अतन्द्र: । ब्रह्मणा । धीर: । प्राण: । मा । अनु । तिष्ठतु ॥६.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
प्राण की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [परमेश्वर] (अस्य) इस (सर्वजन्मनः) विविध जन्मवाले और (सर्वस्य) सब (चेष्टतः) चेष्टा करनेवाले [कार्यरूप जगत्] का (ईशे) ईश्वर है, [वह] (अतन्द्रः) आलस रहित, (धीरः) धीर [बुद्धिमान्] (प्राणः) प्राण [जीवनदाता परमेश्वर] (ब्रह्मणा) वेदज्ञान द्वारा (मा अनु) मेरे साथ-साथ (तिष्ठतु) ठहरा रहे ॥२४॥
भावार्थ
मनुष्य सर्वशक्तिमान्, सर्वनियन्ता परमेश्वर की महिमा जानकर निरालसी, धीर, वीर होकर पुरुषार्थ करे ॥२४॥इस मन्त्र का पूर्वार्ध कुछ भेद से ऊपर मन्त्र २३ में आया है ॥
टिप्पणी
२४−पूर्वार्धर्चो व्याख्यातः, म० २३। विश्वशब्दस्य स्थाने सर्वशब्दो विशेषः। (अतन्द्रः) निरलसः। (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (धीरः) धीमान्। बुद्धिमान् (प्राणः) जीवनदाता परमेश्वरः (मा) माम् (अनु) अनुलक्ष्य (तिष्ठतु) वर्तताम् ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( यः ) = जो परमेश्वर ( अस्य ) = इस ( सर्वजन्मन: ) = अनेक जन्म और ( सर्वस्य चेष्टतः ) = सब चेष्टा करनेवाले कार्य जगत् का ( ईशे ) = ईश्वर है, वह परमेश्वर ( अतन्द्रः ) = आलस्य रहित ( धीर: ) = बुद्धिमान् ( प्राणः ) = जीवनदाता ( ब्रह्मणा ) = वेद ज्ञान द्वारा ( मा अनु ) = मेरे साथ-साथ ( तिष्ठतु ) = ठहरा रहे ।
भावार्थ
भावार्थ = परमेश्वर सर्वशक्तिमान्, सर्वनियन्ता, सर्वज्ञ, जीवनदाता, जगदीश से हमारी प्रार्थना है कि हे भगवन्, हमें वैदिक ज्ञान में प्रवीण करते हुए सदा सुखी करें और सदा शुभ कामों में प्रेरणा करते रहें ।
विषय
ब्रह्मणा मा अनु तिष्ठतु
पदार्थ
१. (य:) = जो (अस्य) = इस (सर्वजन्मन:) = नानारूप जन्मोंवाले (चेष्टतः) = चेष्टा करते हुए (सर्वस्य) = सम्पूर्ण जगत् का (ईशे) = ईश है। वह (अतन्द्रः) = सब प्रकार के आलस्य से रहित-सदा सर्वत्र गतिवाला-(धीर:) = ज्ञानशक्ति से युक्त (प्राण:) = प्राणात्मा प्रभु (ब्रह्मणा) = वेदज्ञान द्वारा (मा अनुतिष्ठतु) = मेरे साथ स्थित हो-वेदज्ञान द्वारा मैं उस प्राणात्मा प्रभु को प्राप्त करूँ।
भावार्थ
प्राणात्मा प्रभु सबके ईश हैं-वे अतन्द्र व धीर हैं। मैं वेदज्ञान द्वारा प्रभु को प्राप्त करूँ।
भाषार्थ
(यः प्राणः) जो प्राण (सर्वजन्मनः) नानाविध जन्मों वाले, (चेष्टतः) और चेष्टा वाले (अस्य विश्वस्य) इस विश्व का (ईशे) अधीश्वर है (अतन्द्रः) आलस्यरहित (धीरः) तथा कर्मशील है वह प्राण (ब्रह्मणा) ब्रह्म के साथ (मा अनु) मुझे लक्ष्य कर के (विष्ठतु) स्थित हो, अर्थात् मुझ में स्थित हो।
टिप्पणी
[धीरः= इस पद के दो अर्थ हैं बुद्धिवाला अर्थात् बुद्धिमान्, तथा कर्मशील। धीः = कर्म (निघं० २।२), प्रज्ञानाम (निघं० ३।९) + र (वाला)। प्राण कर्मशील है, प्रज्ञावाला नहीं। "अनु" शब्द लक्षणार्थक१ है । मन्त्र का अभिप्राय यह है कि प्राण, ब्रह्म के साथ, मुझ में स्थिर रहे प्राण की स्थिति द्वारा जीवन की अभिलाषा तभी फलवती हो सकती है यदि जीवन काल में ब्रह्म के साथ भी संसर्ग बना रहे, अन्यथा केवल प्राणमय जीवन निष्फल है]।[१. अनुर्लक्षणे(अष्टा० १।४।८४)।]
विषय
प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (अस्य सर्वजन्मनः) सब प्रकारों से उत्पन्न होने वाले (चेष्ठतः सर्वस्य) और क्रियाशील ‘सर्व’-समस्त संसार के ऊपर (ईशे) वश किये हुए है (सः) वह जगदीश्वर (प्राणः) प्राण-सबके प्राणों का प्राण, (अतन्द्रः) आलस्य और निद्रा रहित (धीरः) प्रज्ञावान् (ब्रह्मणा) अपने ब्रह्म = अन्नरूप शक्ति से (मा अनु तिष्ठतु) मुझे प्राप्त हो। अथवा—(ब्रह्मणा) ब्रह्म ज्ञान के रूप में प्राप्त हो।
टिप्पणी
‘प्राणोमामभिरक्षतु’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(अस्य चेष्टतः सर्वजन्मनः सर्वस्य यः-ईशे) इस चेष्टमान तथा सब जन्म जिसमें होते हैं सब शरीरगण का स्वामित्व करता है (तन्द्रः-धीरः प्राणः-ब्रह्मणा मा अनुतिष्ठनु) प्रमादरहित वह कर्मवाला बनकर ब्रह्म से प्रेरित हुआ व्यष्टि प्राण मुझे अनुष्ठित करे-मेरे साथ बना रहे ॥२४॥
विशेष
ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
इंग्लिश (4)
Subject
Prana Sukta
Meaning
That Prana which rules this world of infinite variety of existence, in it, the world of all that thinks, wills and moves, that which is relentlessly alert and constantly with Brahma, the same may ever abide with me.
Translation
He who is lord of this that has all (sarva) (kinds of) birth, of all that stirs, unwearied, wise by brahman -- let breath go after (anu-stha) me.
Translation
The Prana who rules over this universe of varied sorts that stirs and moves and which remains stable with soul always alert and firm.
Translation
May God, Who rules over all living beings and the world that stirs and works, Who is Alert and Wise assist me through Vedic knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−पूर्वार्धर्चो व्याख्यातः, म० २३। विश्वशब्दस्य स्थाने सर्वशब्दो विशेषः। (अतन्द्रः) निरलसः। (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (धीरः) धीमान्। बुद्धिमान् (प्राणः) जीवनदाता परमेश्वरः (मा) माम् (अनु) अनुलक्ष्य (तिष्ठतु) वर्तताम् ॥
बंगाली (1)
পদার্থ
য়ো অস্য সর্বজন্মন ঈশে সর্বস্য চেষ্টতঃ।
অতন্দ্রো ব্রহ্মণা ধীরঃ প্রাণো মা অনুতিষ্ঠতু ।।৫১।।
(অথর্ব ১১।৪।২৪)
পদার্থঃ (য়ঃ) যে পরমেশ্বর (অস্য) এই (সর্বজন্মনঃ) অনেক বার জন্ম নেয়া এবং (সর্বস্য চেষ্টতঃ) সর্বত চেষ্টাশীল কার্য জগতের (ঈশে) ঈশ্বর; তিনি (অতন্দ্রঃ) আলস্যরহিত, (ধীরঃ) বুদ্ধিমান, (প্রাণঃ) জীবনদাতা, (ব্রহ্মণা) বেদ জ্ঞান দ্বারা (মা অনু) আমার সাথে সদা (তিষ্ঠতু) অবস্থান করছেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরমেশ্বর সর্বশক্তিমান, সর্বনিয়ন্তা, সর্বজ্ঞ, জীবনদাতা। তিনি বেদ জ্ঞানের মাধ্যমেই আমাদের সাথে আছেন এবং এই জ্ঞান দ্বারাই তাঁকে লাভ করা যাবে ।।৫১।।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal