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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 25
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    87

    ऊ॒र्ध्वः सु॒प्तेषु॑ जागार न॒नु ति॒र्यङ्नि प॑द्यते। न सु॒प्तम॑स्य सु॒प्तेष्वनु॑ शुश्राव॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्व: । सु॒प्तेषु॑ । जा॒गा॒र॒ । न॒नु । ति॒र्यङ् । नि । प॒द्य॒ते॒ । न । सु॒प्तम् । अ॒स्‍य॒ । सु॒प्तेषु॑ । अनु॑ । शु॒श्रा॒व॒ । क: । च॒न ॥६.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वः सुप्तेषु जागार ननु तिर्यङ्नि पद्यते। न सुप्तमस्य सुप्तेष्वनु शुश्राव कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्व: । सुप्तेषु । जागार । ननु । तिर्यङ् । नि । पद्यते । न । सुप्तम् । अस्‍य । सुप्तेषु । अनु । शुश्राव । क: । चन ॥६.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुप्तेषु) सोते हुए [प्राणियों] पर वह [प्राण, परमात्मा] (ऊर्ध्वः) ऊपर रहकर (जागार) जागता है, और (ननु) कभी नहीं (तिर्यङ्) तिरछा [होकर] (नि पद्यते) गिरता है। (कः चन) किसी ने भी (सुप्तेषु) सोते हुओं में (अस्य) इस [प्राण परमात्मा] का (सुप्तम्) सोना (न अनु शुश्राव) कभी [परम्परा से] नहीं सुना ॥२५॥

    भावार्थ

    जैसे परमात्मा चेतन्य रहकर सर्वदा सब प्राणियों की सुधि रखता है, वैसे ही मनुष्यों को निरालस होकर पुरुषार्थ करना चाहिये ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(ऊर्ध्वः) उपरि स्थितः सन् (सुप्तेषु) निद्रागतेषु (जागार) लडर्थे लिट्। जागर्ति (ननु) नैव (तिर्यङ्) तिर्यगवस्थितः सन् (निपद्यते) नि पतति (न) निषेधे (सुप्तम्) सुप्तिः (अस्य) प्राणस्य परमेश्वरस्य (सुप्तेषु) (अनु) अनुक्रमेण। परम्परया (शुश्राव) श्रुतवान् (कश्चन) कोऽपि पुरुषः ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( सुप्तेषु ) = सोते हुए प्राणियों पर वह प्राण नामक  परमात्मा  ( ऊर्ध्वः ) = ऊपर रह कर  ( जागार ) = जागता है ।  ( न नु ) = कभी नहीं  ( तिर्यक् ) = तिरछा  ( निपद्यते ) = गिरता।  ( सुप्तेषु ) = सोते हुओं में  ( अस्य सुप्तम् ) = इस परमात्मा का सोना  ( कश्चन ) = किसी ने भी  ( न अनु शुश्राव ) = परम्परा से नहीं सुना । 

    भावार्थ

    भावार्थ = सब प्राणी निद्रा आने पर सो जाते हैं परन्तु जीवनदाता परमेश्वर कभी सोते नहीं । कभी टेढ़े गिरते भी नहीं । कभी किसी मनुष्य ने इस परमात्मा को सोते हुए सुना भी नहीं । 

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    विषय

    सदा जागरित

    पदार्थ

    १. वे प्राणात्मा प्रभु (सुमेषु) = निद्रापरवश प्राणियों में (ऊर्ध्व: जागार) = उत्थित हुए-हुए जाग रहे हैं। रक्षक के सोने का काम ही क्या? (ननु) = निश्चय से सब प्राणी तो (तिर्यङ् निपद्यते) = तिर्यम् अवस्थित हुए-हुए निद्रापरवश होकर सोते हैं, अत: रक्षकभूत आपने तो जागना ही है। २. प्राणियों के (सुप्तेषु) = निद्रापरवश हो जाने पर (अस्य) = उन शरीरों के मध्यवर्ती प्राणात्मा प्रभु के (सुप्तम्) = सोने को (कश्चन) = कोई भी (न अनुशुश्राव) = नहीं सुनता है। प्राणात्मा प्रभु कभी सोते नहीं।

     

    भावार्थ

    सब प्राणी सो जाते हैं-सदा जागरित प्राणात्मा प्रभु रक्षा करते हैं, उनका सोना अप्रसिद्ध है।

     

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    भाषार्थ

    (सुप्तेषु ऊर्ध्वः) सोए हुए प्राणियों में, प्राण या परमेश्वर (जागार) जागता है। प्राण या परमेश्वर (तिर्यक्) टेढ़ा होकर (न, नु) नहीं कभी (निपद्यते) लेटता, नहीं सोता। (सुप्तेषु) सोए हुओं में (अस्य) इस प्राण या परमेश्वर के (सुप्तम्) सोने को (अनु) वंशपरम्परा से (कश्चन) किसी ने (न, शुश्राव) नहीं सुना।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २४ में प्राण और ब्रह्म दोनों का वर्णन हुआ है। तदनुसार मन्त्र २५ में भी दोनों का वर्णन अभिप्रेत है]।

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे प्राण ! तू (ऊर्ध्वः) सब के ऊपर विराजमान शासक होकर (सुप्तेषु) सब के सो जाने पर भी (जागार) जागता रहता है। (ननु) साधारण लोग तो (तिर्यङ्) तिरछा होकर (नि पद्यते) नीचे निद्रा में गिर पड़ता है पर तब भी तू नहीं सोता। (सुप्तेषु) सोते हुए प्राणियों में भी (अस्य) इस प्राण के (सुप्तम्) सो जाने के विषय की बात को (कश्चन) किसी ने भी (न) नहीं (अनु शुश्राव) सुना। सब सो जाते हैं पर प्राण नहीं सोता। इसी प्रकार सब के प्रलय काल में पड़ जाने पर भी वह महाप्राण प्रभु जागता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘जागर’ इति सायणाभिमतः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    Prana is ever up and alert, keeps awake among those who go to sleep, and never lies down to rest. No one has ever heard of it that it too goes to sleep when others are sleeping.

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    Translation

    Upright among the sleeping he wakes by no means (nanu) does he fall down horizontal (tiryan); no one soever has heard of his sleeping among the sleeping.

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    Translation

    This Prana straight among sleepers always wakes and never is laid at length. No one has ever heard that this Prana has been asleep while other sleep.

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    Translation

    Elevated among the sleepers He wakes, and is never laid at length. No one hath ever heard that He hath been asleep while others slept.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(ऊर्ध्वः) उपरि स्थितः सन् (सुप्तेषु) निद्रागतेषु (जागार) लडर्थे लिट्। जागर्ति (ननु) नैव (तिर्यङ्) तिर्यगवस्थितः सन् (निपद्यते) नि पतति (न) निषेधे (सुप्तम्) सुप्तिः (अस्य) प्राणस्य परमेश्वरस्य (सुप्तेषु) (अनु) अनुक्रमेण। परम्परया (शुश्राव) श्रुतवान् (कश्चन) कोऽपि पुरुषः ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ঊর্ধ্বঃ সুপ্তেষু জাগার ননু তির্য়ঙ্নিপদ্যতে।

    ন সুপ্তমস্য সুপ্তেষ্বনু শুশ্রাব কশ্চন ।।৫২।।

    (অথর্ব ১১।৪।২৫)

    পদার্থঃ (সুপ্তেষু) ঘুমিয়ে থাকা প্রাণীর মাঝে থেকেও প্রাণ নামক পরমাত্মা (ঊর্ধ্বঃ) উপরে থেকে (জাগার) জেগে থাকেন। (তির্য়ক্) এর অন্যথা (ন নু নিপদ্যতে) কখনো হয় না। (সুপ্তেষু) সুপ্ত প্রাণীর মত (অস্য সুপ্তম্) এই পরমাত্মার সুপ্তাবস্থার কথা (কশ্চন) কেউই (ন অনু  শুশ্রাব) কখনো শোনে নি।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ সকল প্রাণী নিদ্রাস্থিত হলেও জীবনদাতা পরমাত্মা কখনো নিদ্রা যান না। তিনি সদা জাগ্রত। কখনোই কোন মানুষ পরমাত্মার নিদ্রাবস্থার কথা শ্রবণ করে নি ।।৫২।।

     

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