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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    159

    प्रा॒णमा॑हुर्मात॒रिश्वा॑नं॒ वातो॑ ह प्रा॒ण उ॑च्यते। प्रा॒णे ह॑ भू॒तं भव्यं॑ च प्रा॒णे सर्वं॒ प्रति॑ष्ठितम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णम् । आ॒हु॒: । मा॒त॒रिश्वा॑नम् । वात॑: । ह॒ । प्रा॒ण: । उ॒च्य॒ते॒ । प्रा॒णे । ह॒ । भू॒तम् । भव्य॑म् । च॒ । प्रा॒णे । सर्व॑म् । प्रति॑ऽस्थितम् ॥६.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणमाहुर्मातरिश्वानं वातो ह प्राण उच्यते। प्राणे ह भूतं भव्यं च प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणम् । आहु: । मातरिश्वानम् । वात: । ह । प्राण: । उच्यते । प्राणे । ह । भूतम् । भव्यम् । च । प्राणे । सर्वम् । प्रतिऽस्थितम् ॥६.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्राणम्) प्राण [जीवनदाता परमेश्वर] को (मातरिश्वानम्) आकाश में व्यापक [सूत्रात्मा वायु के समान] (आहुः) वे बताते हैं, (वातः) वायु (ह) भी (प्राणः) [जीवनदाता परमेश्वर] (उच्यते) कहा जाता है। (प्राणे) प्राण [परमेश्वर] में (ह) ही (भूतम्) बीता हुआ (च) और (भव्यम्) होनहार [वस्तु] और (प्राणे) प्राण [परमेश्वर] में (सर्वम्) सब [जगत्] (प्रतिष्ठितम्) टिका हुआ है ॥१५॥

    भावार्थ

    महात्मा लोग अनुभव करते हैं कि परमात्मा ही सर्वशक्तिमान्, सर्वेश्वर और सर्वव्यापक है ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(प्राणम्) जीवनप्रदं परमेश्वरम् (आहुः) कथयन्ति (मातरिश्वानम्) अ० ५।१०।८। मातरि मानकर्तरि अन्तरिक्षे व्यापकं सूत्रात्मरूपम् (वातः) गमनशीलो वायुः (ह) अपि (प्राणः) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः सुः। प्राणे। जीवनप्रदे परमेश्वरे (उच्यते) कथ्यते (प्राणे) परमात्मनि (ह) एव (भूतम्) व्यतीतं पदार्थजातम् (भव्यम्) भविष्यत्। उत्पत्स्यमानं वस्तु (च) (प्राणे) (सर्वम्) समस्तं जगत् (प्रतिष्ठितम्) आश्रितम् ॥

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    विषय

    प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम्

    पदार्थ

    १. (प्राणम्) = उस जीवनदाता प्रभु को ही (मातरिश्वानम् आहुः) = मातरिश्वा 'मातरि अन्तरिक्ष श्वसिति वर्तते-सम्पूर्ण आकाश में व्याप्तिवाला कहते हैं। (प्राण: ह) = वह प्राण ही (वात: उच्यते) = सर्वजगदाधारभूत सूत्रात्मा वायु कहलाता है। २. (प्राणे) = इस सर्वव्यापक सर्वजगदाधारभूत प्राणात्मा प्रभु में ही (ह) = निश्चय से (भूतं भव्यं च) = भूतकालावच्छिन्न उत्पन्न जगत् तथा भविष्यत् कालावच्छिन्न उत्पत्स्यमान जगत् आश्रित है। बहुत क्या कहना, (सर्वं) = यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (प्राणे प्रतिष्ठितम्) = उस प्राणात्मा प्रभु में प्रतिष्ठित है।

    भावार्थ

    प्राणात्मा प्रभु ही सर्वव्यापक व सर्वाधार हैं। उन्हीं में भूत व भव्य सब-कुछ प्रतिष्ठित है।

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    भाषार्थ

    (मातरिश्वानम्) अन्तरिक्ष में व्यापी वायु को (प्राणम्, आहुः) प्राण कहते हैं, (वातः ह) संचारी तथा रोगनाशक१ वायु भी (प्राणः उच्यते) प्राण कहा जाता है। (भूतम्, भव्यम्, च) भूतकाल का और भविष्यत् काल का जगत् (प्राणे ह) प्राण में, तथा (सर्वम्) सब जगत् (प्राणे) प्राण में (प्रतिष्ठितम्) स्थित है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र के पूर्वार्ध में आग द्वारा वायु तथा उत्तरार्ध में परमेश्वर अभिप्रेत है। मातरिश्वा द्वारा, मातृगर्भस्थ शिशु की प्राणन क्रिया का उत्पादक प्राण भी सम्भव हैं। वातः = वा गतिगन्धनयोः, गन्धनम् = हिंसनम् नाशनम् अर्दनम्]। [(१) वात, रोगनाशक भेषज तथा विश्वभेषज है। यथा “आ वात वाहि भेषजं ..वि वात वाहि यद् रपः। त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे" (अथर्व० ४/१३/३)]

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    सर्व प्राणस्वरूप उस (प्राणम् मातरिश्वानम् आहुः) प्राण को ही ‘मातरिश्वा’ नाम से विद्वान् पुकारते हैं। (वातः ह प्राण उच्यते) वह ‘प्राण’ ‘वात’ या वायु शब्द से कहा जाता है। (प्राणे ह भूतं भव्यं च) भूत और भविष्यत् दोनों प्राण में प्रतिष्ठित हैं। (प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम्) प्राण में सर्व संसार आश्रित है।

    टिप्पणी

    (च०) ‘समाहिताः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (प्राणं मातरिश्वानम्-आहुः) प्राण को मातरिश्वा-माता के अन्दर गर्भ में गति करने वाला-गति देने वाला कहा है (प्राण: ह वातः-उच्यते) प्राण निश्चय वात भी कहा है-गर्भस्थ तत्त्वों को चलाने वाला होने से (प्राणे ह भूतं भव्यं च प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम्) प्राण में भूत-उत्पन्न भव्य-उत्पन्न होने वाला, प्राण में सब वर्तमान भी प्रतिष्ठित है ॥१५॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    Prana is called Matarishva, air in the spatial region. Wind is called Prana. What was in the past, what is to be in future, and all that is abides in Prana.

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    Translation

    Breath they call Mätarisvan; breath is called the wind; in breath what has been and what will be, in breath is all established (pratisthita).

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    Translation

    The enlightened persons call Matrishvan, the air spreading in firmament, as Prana, Vat, the air is also called Prana. The past and present are based on this Prana and on it depends everything.

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    Translation

    The sages speak of God as Pervader' in the atmosphere, God, the Bestower of life is spoken of as Active like the wind. On God, Past and Future, yea, on God depends everything.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(प्राणम्) जीवनप्रदं परमेश्वरम् (आहुः) कथयन्ति (मातरिश्वानम्) अ० ५।१०।८। मातरि मानकर्तरि अन्तरिक्षे व्यापकं सूत्रात्मरूपम् (वातः) गमनशीलो वायुः (ह) अपि (प्राणः) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेः सुः। प्राणे। जीवनप्रदे परमेश्वरे (उच्यते) कथ्यते (प्राणे) परमात्मनि (ह) एव (भूतम्) व्यतीतं पदार्थजातम् (भव्यम्) भविष्यत्। उत्पत्स्यमानं वस्तु (च) (प्राणे) (सर्वम्) समस्तं जगत् (प्रतिष्ठितम्) आश्रितम् ॥

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