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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    105

    नम॑स्ते प्राण॒ क्रन्दा॑य॒ नम॑स्ते स्तनयि॒त्नवे॑। नम॑स्ते प्राण वि॒द्युते॒ नम॑स्ते प्राण॒ वर्ष॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । ते॒ । प्रा॒ण॒ । क्रन्दा॑य । नम॑: । ते॒ । स्त॒न॒यि॒त्नवे॑ । नम॑: । ते॒ । प्रा॒ण॒ । वि॒ऽद्युते॑ । नम॑: । ते॒ । प्रा॒ण॒ । वर्ष॑ते ॥६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते प्राण क्रन्दाय नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्ते प्राण विद्युते नमस्ते प्राण वर्षते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । ते । प्राण । क्रन्दाय । नम: । ते । स्तनयित्नवे । नम: । ते । प्राण । विऽद्युते । नम: । ते । प्राण । वर्षते ॥६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (5)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्राण) हे प्राण ! [जीवनदाता परमेश्वर] (क्रन्दाय) दहाड़ने के हित के लिये (ते) तुझे (नमः) नमस्कार, (स्तनयित्नवे) बादल की गर्जन के हित के लिये (ते) तुझे (नमः) नमस्कार है। (प्राण) हे प्राण ! [परमेश्वर] (विद्युते) बिजुली के हित के लिये (ते) तुझे (नमः) नमस्कार, (प्राण) हे प्राण ! [परमेश्वर] (वर्षते) वर्षा के हित के लिये (ते) तुझे (नमः) नमस्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की दया को विचारकर ऐसा प्रयत्न करें कि वर्षासम्बन्धी सब क्रियाएँ सर्वथा उपकारी होवें ॥२॥इस मन्त्र का मिलान अथर्व० का० १ सू० १३ म० १ से करो ॥

    टिप्पणी

    २−(नमः) (ते) तुभ्यम् (प्राण) म० १। हे जीवनप्रद (क्रन्दाय) क्रदि आह्वाने रोदने च-पचाद्यच्। ध्वनिहिताय (स्तनियत्नवे) अ० १।१३।१। मेघगर्जनहिताय (विद्युते) अ० १।१३।१। विद्युद्धिताय (वर्षते) वृष्टिहिताय। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    मेघात्मा प्रभु

    पदार्थ

    १. मेघरूप में वे प्राणप्रभु ही वृष्टि करते हैं। हे (प्राण) = सबको प्राणित करनेवाले मेघरूप प्रभो! (क्रन्दाय ते नमः) = बादलों की घटा में प्रवेश करके ध्वनि करते हुए आपके लिए नमस्कार हो। (स्तनयित्नवे ते नम:) = उसी प्रकार स्तनित व गर्जित करते हुए आपके लिए नमस्कार हो। २. हे (प्राण) = प्राणात्मा प्रभो ! विधुते (ते नमः) = विधुदूप से विद्योतमान आपके लिए प्रणाम हो और तब हे प्राण-सबके प्राणभूत प्रभो! (वर्षते ते नमः) = वृष्टि करते हुए आपके लिए प्रणाम हो।

    भावार्थ

    प्रभु ही मेघों में प्रविष्ट होकर ध्वनि व गर्जन कर रहे हैं। उन्हीं की शक्ति व व्यवस्था से ही सब विद्योतन व वर्षण होता है।

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    भाषार्थ

    (प्राण) हे प्राण ! (क्रन्दाय) नाद या ध्वनि करते हुए (ते नमः) तुझे नमस्कार हो, (स्तनयित्नवे) गरजते हुए (ते) तुझे (नमः) नमस्कार हो। (प्राण) हे प्राण ! (विद्युते) चमकते हुए (ते नमः) तुझे नमस्कार हो, (प्राण) हे प्राण ! (वर्षते) बरसते हुए (ते नमः) तुझे नमस्कार हो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में मेघ के वर्णन के व्याज से परमेश्वर को नमस्कार किये हैं। मेघ निज स्थिति और कार्यो के लिये प्राणदाता परमेश्वर से प्राण प्राप्त करता है। इस की गरजना, नाद, चमकना और बरसना परमेश्वराधीन है। जैसे शरीर जड़ है, और शरीरस्थ जीवात्मा चेतन हैं। इस चेतन के कारण शरीर की स्थिति तथा चेष्टाएं होती हैं, जीवात्मा के निकल जाने पर शरीर अग्नि के अर्पित हो जाता है, इसी प्रकार मेघ और परमेश्वरीय प्राण की पारस्परिक स्थिति है। आकाश के मेघाच्छन्न होने पर भी, परमेश्वरीयेच्छा के अभाव में, मेघ बरसता नहीं। मेघ तो परमेश्वरीय कृति है, और पत्थर की मूर्ति मानुषकृति है। पत्थर की मूर्त्ति से मनुष्य के कौशल की तो प्रशंसा हो सकती है, परमेश्वर की नहीं।]

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (प्राण) समस्त संसार के प्राणस्वरूप परमेश्वर ! (क्रन्दाय ते नमः) सबको आह्लादित करनेहारे, परम आनंदस्वरूप तुझको नमस्कार है। (स्तनयित्नवे ते नमः) समस्त संसार पर मेघ के समान सुखों, अन्नों, जलों और जीवनों की वर्षा करनेहारे पर्जन्यरूप तुझ प्रजापति को नमस्कार है। हे (प्राण) प्राण ! (ते विद्युते नमः) विद्युत् के समान प्रखर कान्ति से चमकने वाले प्रकाशस्वरूप तुझको नमस्कार है। हे प्राण ! (वर्षते ते नमः) आनंदधाराओं को वर्षण करते हुए तुझे नमस्कार है। यदात्वमथ वर्षस्यथेमाः प्राण ते प्रजाः। आनन्दरूपास्तिष्ठन्ति कामायान्नं भविष्यति॥ प्रश्नोप० २। १०॥ हे प्राण जब तू बरसता है तब ये समस्त तेरी प्रजाएं आनन्द प्रसन्न होती हैं कि खूब न होगा।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘नमस्तेस्तु विद्युते’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (प्राण ते क्रन्दाय नमः) हे समष्टि प्राण ! तुझ मेघों में क्रन्दन विविध गमन करनेवाले के लिये स्वागत है "ऋदि वैक्लव्ये" (स्वादि०) "क्लुङ गतौ” (स्वादि०) (ते स्तनयित्नवे: नमः) तुझ मेघों में गर्जना करनेवाले के लिये स्वागत है। (प्राण ते विद्यते नमः) हे प्राण तुझ मेत्रों में विद्योतन करने वाले के लिये स्वागत है (प्राण ते वर्षते) हे प्राण तुझ मेघों से जल वर्षाते हुए के लिये स्वागत है ॥२॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    O Prana, life of life, homage to you for the roar, homage to you for the thunder. Homage to you, Prana, for the lightning, homage to you as you shower with the waters of life.

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    Translation

    Homage, O breath, to thy roaring, homage to thy thunder; homage, O breath, to thy lightning, homage to thee raining, O breath.

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    Translation

    I describe the glory of Prana, the Cosmo-physical vitality for its roar, for its thunder-peal and lightning. I accept the importance of Prana for sending rains on the earth.

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    Translation

    Homage unto Thee, O God, the Embodiment of joy. Homage unto Thee, O God, the Bestower of corns, waters and life on humanity. Homage unto Thee, O God, Lustrous like the lightning. Homage unto Thee, O God, the showerer of the streams of joy!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(नमः) (ते) तुभ्यम् (प्राण) म० १। हे जीवनप्रद (क्रन्दाय) क्रदि आह्वाने रोदने च-पचाद्यच्। ध्वनिहिताय (स्तनियत्नवे) अ० १।१३।१। मेघगर्जनहिताय (विद्युते) अ० १।१३।१। विद्युद्धिताय (वर्षते) वृष्टिहिताय। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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