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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 26
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - मध्येज्योतिरुष्णिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त

    तानि॒ कल्प॑द् ब्रह्मचा॒री स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे तपो॑ऽतिष्ठत्त॒प्यमा॑नः समु॒द्रे। स स्ना॒तो ब॒भ्रुः पि॑ङ्ग॒लः पृ॑थि॒व्यां ब॒हु रो॑चते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तानि॑ । कल्प॑त् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । स॒लि॒लस्य॑ । पृ॒ष्ठे । तप॑: । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । त॒प्यमा॑न: । स॒मु॒द्रे । स: । स्ना॒त: । ब॒भ्रु: । पि॒ङ्ग॒ल: । पृ॒थि॒व्याम् । ब॒हु । रो॒च॒ते॒ ॥७.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तानि कल्पद् ब्रह्मचारी सलिलस्य पृष्ठे तपोऽतिष्ठत्तप्यमानः समुद्रे। स स्नातो बभ्रुः पिङ्गलः पृथिव्यां बहु रोचते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तानि । कल्पत् । ब्रह्मऽचारी । सलिलस्य । पृष्ठे । तप: । अतिष्ठत् । तप्यमान: । समुद्रे । स: । स्नात: । बभ्रु: । पिङ्गल: । पृथिव्याम् । बहु । रोचते ॥७.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 26

    मन्त्रार्थ -
    आदित्य परक व्याख्या- (ब्रह्मचारी) आदित्य (तानि) प्राणादि उदरपर्यन्त अङ्गों को (कल्पत्) "कल्पयन्" लिङ्गव्यत्ययः, णिचो लोपश्च" समर्थ करता हुआ- उनकी उत्पत्ति समृद्धि के हेतु (समुद्रे तप्यमान:) समुद्रसदृश गहन आकाश में पृथिवी के अधोभाग में "समुद्रमन्तरिक्षनाम" (निघं. १।३) ताप करता हुआ (सलिलस्य पृष्ठे) जल के पृष्ठभूत पृथिवी पर (तपः-अतिष्ठत्) ज्वलन करता है- ज्वाला बिखेरता है (सः स्नातः-बभ्र: पिङ्गलः) वह आदित्य शुभ्र निर्मल तेजस्वी "ष्णा शौचे" (अदादि०) शुभ्र सुनहरा होता हुआ (पृथिव्यां बहु रोचते) पृथिवी पर बहुत प्रकाश देता है "रोचते ज्वलतिकर्मा' (निघं. १।१७)। विद्यार्थी के विषय में-(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्यव्रती जन (तानि )उन प्राणादि उदरपर्यन्त वस्तुओं को (कल्पत्) समर्थ करता हुआ-निज हितार्थ और परार्थ धारण करने के लिये (समुद्रे तप्यमानः) विद्यासमुद्र में आचार्यकुल में तपस्या करता हुआ (सलिलस्य पृष्ठे) बहुत जनसमूह के आश्रय में शासन में ज्ञानप्रस्रवण स्थान में "सलिलं बहु नाम" (निघं. ३।१) (तपः अतिष्ठत् ) ज्ञानमय तप का अनुष्ठान करता है (सः स्नातः बभ्रुः पिङ्गलः) वह विद्याव्रतस्नातक तेजस्वी ज्ञानप्रकाशयुक्त होता हुआ (पृथिव्यां चहु रोचते) पृथिवीलोक पर सर्वजनस्थान में अत्यन्त शोभित होता है ॥२६॥

    विशेष - ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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