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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 26
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - मध्येज्योतिरुष्णिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    79

    तानि॒ कल्प॑द् ब्रह्मचा॒री स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे तपो॑ऽतिष्ठत्त॒प्यमा॑नः समु॒द्रे। स स्ना॒तो ब॒भ्रुः पि॑ङ्ग॒लः पृ॑थि॒व्यां ब॒हु रो॑चते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तानि॑ । कल्प॑त् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । स॒लि॒लस्य॑ । पृ॒ष्ठे । तप॑: । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । त॒प्यमा॑न: । स॒मु॒द्रे । स: । स्ना॒त: । ब॒भ्रु: । पि॒ङ्ग॒ल: । पृ॒थि॒व्याम् । ब॒हु । रो॒च॒ते॒ ॥७.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तानि कल्पद् ब्रह्मचारी सलिलस्य पृष्ठे तपोऽतिष्ठत्तप्यमानः समुद्रे। स स्नातो बभ्रुः पिङ्गलः पृथिव्यां बहु रोचते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तानि । कल्पत् । ब्रह्मऽचारी । सलिलस्य । पृष्ठे । तप: । अतिष्ठत् । तप्यमान: । समुद्रे । स: । स्नात: । बभ्रु: । पिङ्गल: । पृथिव्याम् । बहु । रोचते ॥७.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तानि) उन [कर्मों] को (कल्पत्) करता हुआ (समुद्रे) समुद्र [के समान गम्भीर ब्रह्मचर्य] में (तपः तप्यमानः) तप तपता हुआ [वीर्यनिग्रह आदि तप करता हुआ] (सलिलस्य पृष्ठे) जल के ऊपर [विद्यारूप जल में स्नान करने के लिये] (अतिष्ठत्) स्थित हुआ है। (सः) वह (स्नातः) स्नान किये हुए [स्नातक ब्रह्मचारी] (बभ्रुः) पोषण करनेवाला और (पिङ्गलः) बलवान् होकर (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (बहु) बहुत (रोचते) प्रकाशमान होता है ॥२६॥

    भावार्थ

    तपस्वी ब्रह्मचारी वेदपठन, वीर्यनिग्रह, और आचार्य की सन्तुष्टि से विद्या में स्नातक होकर और समावर्तन करके अपने उत्तम गुण कर्म से संसार का उपकार करता हुआ यशस्वी होता है ॥२६॥यह मन्त्र महर्षि दयानन्दकृत संस्कारविधि समावर्तनप्रकरण में व्याख्यात है ॥

    टिप्पणी

    २६−(तानि) पूर्वोक्तकर्माणि (कल्पत्) कल्पयन् (ब्रह्मचारी) म० १। वेदाध्येता वीर्यनिग्राहकः पुरुषः (सलिलस्य) विद्यारूपजलस्य (पृष्ठे) उपरिभागे (तपः) इन्द्रियनिग्रहादितपश्चरणम् (अतिष्ठत्) स्थितवान् (तप्यमानः) कुर्वाणः (समुद्रे) समुद्ररूपे गम्भीरे ब्रह्मचर्ये (सः) ब्रह्मचारी (स्नातः) विद्यायां कृतस्नानः। वेदाध्ययनान्तरं कृतसमावर्तनाङ्गस्नानः। स्नातकः (बभ्रुः) कुर्भ्रश्च। उ० १।२२। डुभृञ् धारणपोषणयोः-कु द्वित्वञ्च। पोषकः (पिङ्गलः) कुटिकशिकौतिभ्यो मुट् च। उ० १।१०९। पिजि वर्णे, दीप्तौ, वासे, बले, हिंसायां दाने च-कल। दीप्यमानः। बलवान् (पृथिव्याम्) भूलोके (बहु) विविधम् (रोचते) दीप्यते ॥

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    विषय

    स्नातक

    पदार्थ

    १. हे ब्रह्मचर्यात्मक ब्रह्मन्। आप (अस्मासु) = हममें (चक्षुः श्रोत्रम्) = देखने व सुनने की शक्ति को और (यश:) = कीर्ति को (धेहि) = धारण कीजिए। इसी दृष्टिकोण के (अन्नम्) = भोज्य अन्न को, (रेत:) = अन्न से उत्पन्न इस वीर्य को, (लोहितम्) = रुधिर को तथा (उदरम्) = उदर को-उदरोपलक्षित समस्त शरीर को [धेहि-] धारण कीजिए। २. (तानि) = उन चक्षु, श्रोत्र आदि को (कल्पत) = सामर्थ्ययुक्त करता हुआ (ब्रह्मचारी) = वीर्यरक्षक युवक (समुद्रे) = ज्ञान के समुद्र आचार्य के गर्भ में (तपः तप्यमान:) = तप भी करता हुआ (सलिलस्य पृष्ठे) = ज्ञान-जल के पृष्ठ पर (अतिष्ठत्) = स्थिर होता है। इस ज्ञान-जल में (स्नातः) = स्नान करके शुद्ध बना हुआ (स:) = वह ब्रह्मचारी (बभ्रू:) = वीर्य का धारण करनेवाला (पिंगल:) = तेजस्विता से पिंगल वर्णवाला (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (बहु रोचते) = बहुत ही चमकता है।

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी अपने में 'चक्षु, श्रोत्र, यश, अन्न, रेत, लोहित व उदर' को धारण करता हुआ आचार्य के गर्भ में तपस्यापूर्वक स्थित होता है। यह ज्ञान-जल में स्नान करके, वीर्यरक्षण से तेजस्वी बना हुआ इस पृथिवी पर खूब ही चमकता है।

    यह निष्पाप जीवनवाला ब्रह्मचारी शान्ति का विस्तार करनेवाला शन्ताति' होता हुआ अगले सूक्त में निष्पापता के लिए प्रार्थना करता है -

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    भाषार्थ

    (तपः, तप्यमानः, ब्रह्मचारी) तपश्चर्या करता हुआ ब्रह्मचारी (सलिलस्य पृष्ठे) जल की पीठ पर (समुद्र) समुद्र [की पीठ या लहर] पर (अतिष्ठत्) जब स्थित होने में समर्थ हो जाता है, तब (तानि) उन [मन्त्र २४, २५ में कथित तत्त्वों तथा शरीराङ्गों] को (कल्पत्) सामर्थ्यवान कर देता है। (सः) वह (स्नातः) स्नातक होकर, (बभ्रुः) सब का भरण पोषण करता हुआ, (पिङ्गलः) रक्तमुखवाला (पृथिव्याम्) पृथिवी में (बहु रोचते) बहुत रुचिकर अर्थात् प्रिय होता या चमकता है।

    टिप्पणी

    [कल्पत् = क्लृप् सामर्थ्य। बभ्रुः= भृञ् धारणपोषणयोः। पिङ्गलः = Reddish-Broun (आप्टे)। सलिलस्य पृष्ठे, समुद्र, अतिष्ठत्= इन पदों द्वारा ब्रह्मचारी की योगसिद्धि का वर्णन हुआ है। योग की अणिमादि सिद्धि के कारण योगी जल पर स्थित हो सकता है। मन्त्र में "सलिलस्य" पद द्वारा तालाब आदि के स्थिर और अचञ्चल जलों पर स्थित होना सूचित किया है, और "समुद्रे"१ पद द्वारा समुद्र की चञ्चल लहर पर स्थित होना सूचित किया है। मन्त्र ११ की व्याख्या के सम्बन्ध में, (योग ३।४२) की व्याख्या में व्यासमुनि द्वारा "जल की पृष्ठ पर योगी का पैरों द्वारा विहरण करने का कथन किया है। तथा "उदानजयाज्जलपंकण्टकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च" (योग ३।३८) की व्याख्या में वाचस्पति लिखते है कि "उदाने कृतसंयमस्तज्जयात् जलादिभिर्न प्रतिहन्यते," अर्थात् उदान में संयम द्वारा जल आदि में योगी का प्रतिरोध नहीं होता। उदान वायु का नियन्त्रण, कण्डस्थ विशुद्ध चक्र करता है]। [१. तथा “उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः" (ऋक् १०।१३६।५) तथा अथर्व० ११।५।११ की व्याख्या देखो। "आक्षेति" के दो अर्थ हैं, (१) आ-निवास करता है, (२) तथा वहां तक गति करता है। "क्षि निवासगत्योः"। "निवास" करने का अभिप्राय “समुद्र की पृष्ठ पर" है, या उसके "किनारों पर" -- यह विचारणीय है।]

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (तानि) पूर्वोक्त प्राण, अपान, व्यान, वाणी, मन, हृदय, चक्षु, श्रोत्र, ब्रह्म, मेधा, यश, अन्न, वीर्य आदि समस्त धातुओं को (कल्पत्) धारण करता हुआ (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (समुद्रे) समुद्र के समान ज्ञान और सामर्थ्य में गम्भीर परमेश्वर के आधार पर (सलिलस्य पृष्ठे) सलिल के समान सर्व जीवनाधार परमेश्वर के आनन्द रस के (पृष्ठे) पृष्ठ पर समुद्र के जल के ऊपर तपते हुए सूर्य के समान (तपः तप्यमानः) तप करता हुग्रा (अतिष्ठत्) विराजता है। (सः) वह (स्नातः) विद्या और व्रत में स्नात, निष्णात होकर (बभ्रुः) ज्ञान धारण में समर्थ प्रकाशमान (पिङ्गलः) तेजस्वी हो कर (बहु रोचते) अत्यन्त अधिक शोभा देता है।

    टिप्पणी

    ‘तानि कल्पन्’ इति ह्विनिकामितः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    उपसंहार में इस मन्त्र के आदित्यरक और ब्रह्मचर्यव्रती विषयक अर्थ पृथक् पृथक् किये हैं ।

    मन्त्रार्थ

    आदित्य परक व्याख्या- (ब्रह्मचारी) आदित्य (तानि) प्राणादि उदरपर्यन्त अङ्गों को (कल्पत्) "कल्पयन्" लिङ्गव्यत्ययः, णिचो लोपश्च" समर्थ करता हुआ- उनकी उत्पत्ति समृद्धि के हेतु (समुद्रे तप्यमान:) समुद्रसदृश गहन आकाश में पृथिवी के अधोभाग में "समुद्रमन्तरिक्षनाम" (निघं. १।३) ताप करता हुआ (सलिलस्य पृष्ठे) जल के पृष्ठभूत पृथिवी पर (तपः-अतिष्ठत्) ज्वलन करता है- ज्वाला बिखेरता है (सः स्नातः-बभ्र: पिङ्गलः) वह आदित्य शुभ्र निर्मल तेजस्वी "ष्णा शौचे" (अदादि०) शुभ्र सुनहरा होता हुआ (पृथिव्यां बहु रोचते) पृथिवी पर बहुत प्रकाश देता है "रोचते ज्वलतिकर्मा' (निघं. १।१७)। विद्यार्थी के विषय में-(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्यव्रती जन (तानि )उन प्राणादि उदरपर्यन्त वस्तुओं को (कल्पत्) समर्थ करता हुआ-निज हितार्थ और परार्थ धारण करने के लिये (समुद्रे तप्यमानः) विद्यासमुद्र में आचार्यकुल में तपस्या करता हुआ (सलिलस्य पृष्ठे) बहुत जनसमूह के आश्रय में शासन में ज्ञानप्रस्रवण स्थान में "सलिलं बहु नाम" (निघं. ३।१) (तपः अतिष्ठत् ) ज्ञानमय तप का अनुष्ठान करता है (सः स्नातः बभ्रुः पिङ्गलः) वह विद्याव्रतस्नातक तेजस्वी ज्ञानप्रकाशयुक्त होता हुआ (पृथिव्यां चहु रोचते) पृथिवीलोक पर सर्वजनस्थान में अत्यन्त शोभित होता है ॥२६॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    In the midst of this sea of life on top of the waves of karma and consequence, passing through the crucibles of the discipline of continence and austerity, established in divinity, the Brahmachari develops all the virtues of physical, mental and social excellence and, graduated, committed, vibrantly healthy and golden gracious in generosity, he shines bright in life on earth.

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    Translation

    Shaping these things, the Vedic student stood performing penance (tapas tapya) on the back of the sea (salila), in-the ocean; he, bathed, brown, ruddy (pingala), shines much on the earth.

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    Translation

    Standing on the surface of the waters of learning in the unfathomable sea of the stage of Brahmacharya, exerting himself to control his senses and performing the duties assigned to him, the vedic student plunges himself (in the sea of learning), so to say, and bathing therein comes out having stored in himself immense knowledge and shines most brilliantly in the world.

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    Translation

    Having mastered the above mentioned forces, the Brahmchari, exercising austerity in the Brahmcharya Ashrama, deep like the ocean, exerts to bathe in the water of knowledge. After graduation, being glorious and vigorous, he shines exceedingly on earth.

    Footnote

    After graduation: When he finishes his studies and becomes a Sanataka.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २६−(तानि) पूर्वोक्तकर्माणि (कल्पत्) कल्पयन् (ब्रह्मचारी) म० १। वेदाध्येता वीर्यनिग्राहकः पुरुषः (सलिलस्य) विद्यारूपजलस्य (पृष्ठे) उपरिभागे (तपः) इन्द्रियनिग्रहादितपश्चरणम् (अतिष्ठत्) स्थितवान् (तप्यमानः) कुर्वाणः (समुद्रे) समुद्ररूपे गम्भीरे ब्रह्मचर्ये (सः) ब्रह्मचारी (स्नातः) विद्यायां कृतस्नानः। वेदाध्ययनान्तरं कृतसमावर्तनाङ्गस्नानः। स्नातकः (बभ्रुः) कुर्भ्रश्च। उ० १।२२। डुभृञ् धारणपोषणयोः-कु द्वित्वञ्च। पोषकः (पिङ्गलः) कुटिकशिकौतिभ्यो मुट् च। उ० १।१०९। पिजि वर्णे, दीप्तौ, वासे, बले, हिंसायां दाने च-कल। दीप्यमानः। बलवान् (पृथिव्याम्) भूलोके (बहु) विविधम् (रोचते) दीप्यते ॥

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