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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 12
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - शाक्वरगर्भा चतुष्पदा विराडति जगती सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    97

    अ॑भि॒क्रन्द॑न्स्त॒नय॑न्नरु॒णः शि॑ति॒ङ्गो बृ॒हच्छेपोऽनु॒ भूमौ॑ जभार। ब्र॑ह्मचा॒री सि॑ञ्चति॒ सानौ॒ रेतः॑ पृथि॒व्यां तेन॑ जीवन्ति प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि॒ऽक्रन्द॑न् । स्त॒नय॑न् । अ॒रु॒ण: । शि॒ति॒ङ्ग: । बृ॒हत् । शेप॑: । अनु॑ । भूमौ॑ । ज॒भा॒र॒ । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । सि॒ञ्च॒ति॒ । सानौ॑ । रेत॑: । पृ॒थि॒व्याम् । तेन॑ । जी॒व॒न्ति॒ । प्र॒ऽदिश॑: । चत॑स्र: ॥७.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभिक्रन्दन्स्तनयन्नरुणः शितिङ्गो बृहच्छेपोऽनु भूमौ जभार। ब्रह्मचारी सिञ्चति सानौ रेतः पृथिव्यां तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽक्रन्दन् । स्तनयन् । अरुण: । शितिङ्ग: । बृहत् । शेप: । अनु । भूमौ । जभार । ब्रह्मऽचारी । सिञ्चति । सानौ । रेत: । पृथिव्याम् । तेन । जीवन्ति । प्रऽदिश: । चतस्र: ॥७.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (अभिक्रन्दन्) सब ओर शब्द करता हुआ, (स्तनयन्) गरजता हुआ, (शितिङ्गः) प्रकाश और अन्धकार में चलनेवाला, (अरुणः) गतिमान् [वा सूर्य के समान प्रतापी पुरुष] (भूमौ) भूमि पर (बृहत्) बड़ा (शेषः) उत्पादन सामर्थ्य (अनु) निरन्तर (जभार) लाया है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (पृथिव्याम्) पृथिवी के ऊपर (सानौ) पहाड़ के सम स्थान पर (रेतः) बीज (सिञ्चति) सींचता है, (तेन) उससे (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ (जीवन्ति) जीवन करती हैं ॥१२॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुषार्थी ब्रह्मचारी यन्त्र, कला, नौका, यान, विमान आदि वृद्धि के अनेक साधनों से पृथिवी के जल, थल और पहाड़ों को उपजाऊ बनाता है ॥१२॥इस मन्त्र का चौथा पाद-अथर्व० ९।१०।१९, के पाद ४, तथा ऋग्वेद १।१६४।४२, पाद २ में है ॥

    टिप्पणी

    १२−(अभिक्रन्दन्) अभितः शब्दं कुर्वन् (स्तनयन्) गर्जन् (अरुणः) अर्तेश्च। उ० ३।६०। ऋ गतौ-उनन्, स च चित्। गतिमान्। सूर्यः (शितिङ्गः) क्रमितमिशतिस्तम्भामत इच्च। उ० ४।१२२। शत हिंसायाम्-इन्, स च कित्, अत इकारः। खच्प्रकरणे गमेः सुप्युपसंख्यानम्। खच्च डिद् वा वक्तव्यः। वा० पा० ३।२।३८। शिति+गम-खच्, स च डित्। शितिः शुक्लः कृष्णश्च तयोर्मध्ये गच्छति यः सः। प्रकाशान्धकारयोर्मध्ये समानगमनः। शितिपात्-अ० ३।२९।१। (बृहत्) महत् (शेषः) अ० ४।३७।७। उत्पादनसामर्थ्यम् (अनु) निरन्तरम् (भूमौ) पृथिव्याम् (जभार) जहार। प्रापितवान् (सिञ्चति) वर्षति (सानौ) पर्वतस्थे समभूमिदेशे (रेतः) बीजम् (पृथिव्याम्) (तेन) कर्मणा (जीवन्ति) प्राणान् धारयन्ति (प्रदिशः) प्राच्याद्या महादिशः। तत्रत्याः प्राणिनः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥

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    विषय

    मेघरूप ब्रह्मचारी

    पदार्थ

    १. (अभिनन्दन) = भूमि का मानो आह्वान करता हुआ, (स्तनयन्) = विद्युत् की गर्जनावाला, (अरुण:) = लाल भूरा-सा [Reddish brown] (शितिंगः) = श्वेत व काले वर्षों में [शिति white, black] गतिवाला [पानी से भरा होने पर 'काला', बरस जाने पर 'श्वेत'] मेघ, (बृहत् शेप:) = [प्रभूतं प्रजननम्-सा०] अपने प्रभूत प्रजनन सामर्थ्य को (भूमौ अनुजभार) -=इस पृथिवी पर प्राप्त कराता है। २. यह (ब्रह्मचारी) = [ब्रह्म wealth, food] ऐश्वर्य व भोजन के साथ विचरनेवाला मेघ (सानौ) = पर्वत शिखरों पर तथा (प्रथिव्याम्) = पृथिवी पर (रेतः सिञ्चति) = जल को सिक्त करता है। इस रेत:सेचन से ही तो (चतस्त्र: प्रदिश:) = चारों प्रकृष्ट दिशाएँ-इन दिशाओं में स्थित प्राणी (जीवन्ति) = जीते हैं।

    भावार्थ

    मेघ भी मानो ब्रह्मचारी है। जल की ऊर्ध्वगति से बनता हुआ यह हमें भी ऊध्वरेता बनने की प्रेरणा देता है। यह पृथिवी पर जब अपने रेतस् का सेचन करता है, तब अनादि की उत्पत्ति होकर सब प्राणियों का जीवन सम्भव होता है।

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    भाषार्थ

    (अभिक्रन्दन्) शब्द करता हुआ, (स्तनयन्) गरजता हुआ, (अरुणः) आरोचमान हुआ, (शितिङ्गः) शुभ्र वायुमण्डल को प्राप्त हुआ मेघ (बृहच्छेपः) प्रबुद्ध-लिङ्गेन्द्रिय (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी का (अनुजभार) अनुहरण अर्थात् अनुकरण करता है, और (भूमौ) भूमि पर तथा (सानौ) पर्वतों पर (रेतः) जल (सिञ्चति) सींचता है, (तेन) उस द्वारा (पृथिव्याम्) पृथिवी में (चतस्रः प्रदिशः) चहुंदिग्-निवासी प्रजाजन (जीवन्ति) जीते हैं, वैसे (अभिक्रन्दन्) ललकारता हुआ, (स्तनयन्) मेघसदृश गरजता हुआ, (अरुणः) देदीप्यमान, (शितिङ्गः) शुभ्रकर्मों को प्राप्त हुआ (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी, (भूमौ) भूमि में (सानौ) और पर्वतों में (रेतः) निज सदुपदेशों का जल (सिञ्चति) सींचता है, (तेन) और उस द्वारा (पृथिव्याम्) पृथिवी में (चतस्रः प्रदिशः) चहुंदिग्-निवासी प्रजाजन (जीवन्ति) नव जीवन प्राप्त कर जीते हैं।

    टिप्पणी

    [अभिक्रन्दन्= मेघ; यथा "अभिक्रन्दत्योषधीः" (अथर्व० ११।४।४)। ब्रह्मचारी पक्ष में ललकारना, आह्वान करना, “क्रदि आह्वाने", यथा "मल्लोमल्लमाह्वयते"। अनुजभार= अनुहरणम्, अनुकरणम्। यथा "बालः मातरमनुहरति”। बृहच्छेपः= इस द्वारा ब्रह्मचारी के पूर्ण यौवन को सूचित किया है। पूर्णयुवा को उपदेश देने का अधिकार है। "बृहच्छेपः” शब्द गृहस्थ प्रवृति का द्योतक नहीं। क्योंकि वह बृहच्छेप होता हुआ भी ब्रह्मचारी है। रेतः उदकनाम (निघं० १।१२)। अरुणः= आरोचमानः (निरुक्त ४।४।२१)। शितिङ्गः= शितिः शुक्लो वा (उणा ४।१२३; महर्षि दयानन्द) + गः (गमनम्)। गतेस्त्रयोऽर्थाः, ज्ञानम्, गतिः, प्राप्तिश्च। प्राप्त्यर्थ अभिप्रेत है। मन्त्र वर्णन में मेघ और ब्रह्मचारी में परस्पर उपमानोपमेय-भाव है]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (अभिक्रन्दन्) सबको आह्लादित करता हुआ (स्तनयन्) गर्जना करता हुआ (शितिङ्गः) श्यामवर्ण, (अरुणः) जलपूर्ण, मेघ (बृहत्-शेपः) बड़े भारी वीर्य रूप जल को (भूमौ अनु जभार) पृथ्वी पर ला बरसाता है। और (सानौ) पर्वतों पर और (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (रेतः सिञ्चति) जल सेचन करता है। (चतस्रः प्रदिशः तेन जीवन्ति) उससे चारों दिशाओं के प्राणी जीवन धारण करते हैं। वह मेघ स्वयं (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी है, ब्रह्मचारी के समान ऊर्ध्वरेता है। उस ब्रह्म की शक्ति मेघ के समान ही ब्रह्मचारी भी (अभिक्रन्दन् स्तनयन्) सब को प्रसन्न करता हुआ, गर्जता हुआ (अरुणः) सूर्य के समान तेजस्वी (शितिङ्गः= क्षितिङ्गः) प्रदीप्ताङ्ग या पृथिवी पर निर्भय होकर विचरने वाला (बृहत्शेपः भूमौ अनु जभार) भूमि पर बड़ा भारी वीर्य धारण किये रहता है। वह (सानौ) पर्वत के शिखर के समान महान् उच्च कार्य में या (पृथिव्यां) पृथिवी के समान उपकार के विशाल भूमि में अपना (रेतः सिञ्चति) वीर्य और सामर्थ्य लगाता है। (तेन जीवन्ति प्रदिशः चतस्रः) उससे चारों दिशाओं के प्राणी प्राण धारण करते और सुखी होते हैं।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘अभिक्रन्दन्निरुणच्चतिंगो' इति पैप्प० सं०। ‘वरुणः श्यतिङ्गो’ हृति सायणाभितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    आदित्यपरक व्याख्या- (ब्रह्मचारी) आदित्य (बृहच्छेपः) अपने तेज से कठिन स्पर्श धर्मवान (अरुण:) तेजस्वी (शितिङ्गः) शिति-सुक्ष्म अभ्रदल मेघ रूप को प्राप्त हुआ (अभिकन्दन् स्तनयन ) स्वाभिमुख आह्वान करता हुआ और गर्जन करता हुआ सा (भूमौ अनुजभार) मेघ को पृथिवी पर अनुकूल रूप में आहरण करता है गिराता है, पुन: (पृथिव्यां सानौरेतः सिञ्चति) पृथिवी पर विशेषतः उन्नत प्रदेश पर्वत पर जल सींचता है "रेतः-उदकनाम” (निघ० १।१२) (तेन चतस्रः प्रदिशः-जीवन्ति) उस सींचे जल से चारों दिशाओं के प्राणी और वनस्पतियाँ जीवन धारण करती हैं । विद्यार्थी के विषय में- (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्य व्रतीजन (बृहच्छेप:) अपने संयम ज्ञान द्वारा दूसरे को अत्यन्त छूने वाला होकर अर्थात् महान् प्रभाव वाला होकर (अरुणः) तेजस्वी (शितिङ्गः) सूक्ष्म बौद्ध ज्ञान को प्राप्त हुआ 'शिति श्यतेः' (निरु० ४|३) (अभिक्रन्दन् स्तनयन्) जनता को आह्नान करता हुआ, उपदेश देता हुआ (पृथिव्यां सानौ) पृथिवी के ऊँच्च पृष्ठ पर ऊँची गद्दी पर (रेतः सिञ्चति) ज्ञानामृत रस को सींचता है (तेन चतस्रः प्रदिश:जीवन्ति) उस सींचे हुए ज्ञानामृत रस से चारों दिशाओं में रहने वाले जन ज्ञान जीवन को धारण करते हैं ॥१२॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    Roaring, thundering, the white, grey, dark and windy cloud, mighty powerful, bearing vapours of water for good of the earth rains down showers of vitality on mountains and the earth, by which all quarters of four directions and living beings on earth receive their life energy. (The cloud is a Brahmachari, i.e., working according to the laws of Brahma operative in nature. The cloud and rain is the result of the interaction of earthly and solar energy in the middle regions of the sky through electric currents. The Brahmachari too is the product of the interaction of the parents and the teacher and ,with his self-confidence and power of knowledge, works generously for the good of life on earth.)

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    Translation

    Roaring on, thundring, the ruddy white-goer has introduced (? anu-bhr) in the earth a great virile member; the Vedic student pours seed upon the surface (sanu), on the earth; by that live the four directions

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    Translation

    Like brown cloud that roaring noisily moves about between light and darkness and pouring down rain on mountains and plains brings great fertility to the earth the Vedic student going about on summits of the mountains and low land wherever there are people—preaching at the top of his voice pours down true knowledge everywhere and like the sun dispelling the darkness of ignorance imparts great strength to the earth whereby creatures in all the quarters live.

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    Translation

    Thundering, shouting, ruddy-hued, and pallid, the powerful cloud filled with water, duly rears the earth. It rains water over mountains and earth, and thus gives life to heaven's four regions.

    Footnote

    Cloud has been mentioned in the verse as Brahmchari. Just as a Brahmchari is full of semen so cloud is full of water. Just as a Brahmchari preserves his semen and wastes it not, so does cloud preserve its water and rains at the proper time.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(अभिक्रन्दन्) अभितः शब्दं कुर्वन् (स्तनयन्) गर्जन् (अरुणः) अर्तेश्च। उ० ३।६०। ऋ गतौ-उनन्, स च चित्। गतिमान्। सूर्यः (शितिङ्गः) क्रमितमिशतिस्तम्भामत इच्च। उ० ४।१२२। शत हिंसायाम्-इन्, स च कित्, अत इकारः। खच्प्रकरणे गमेः सुप्युपसंख्यानम्। खच्च डिद् वा वक्तव्यः। वा० पा० ३।२।३८। शिति+गम-खच्, स च डित्। शितिः शुक्लः कृष्णश्च तयोर्मध्ये गच्छति यः सः। प्रकाशान्धकारयोर्मध्ये समानगमनः। शितिपात्-अ० ३।२९।१। (बृहत्) महत् (शेषः) अ० ४।३७।७। उत्पादनसामर्थ्यम् (अनु) निरन्तरम् (भूमौ) पृथिव्याम् (जभार) जहार। प्रापितवान् (सिञ्चति) वर्षति (सानौ) पर्वतस्थे समभूमिदेशे (रेतः) बीजम् (पृथिव्याम्) (तेन) कर्मणा (जीवन्ति) प्राणान् धारयन्ति (प्रदिशः) प्राच्याद्या महादिशः। तत्रत्याः प्राणिनः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥

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