अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - विराड्गर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
128
ब्र॑ह्मचा॒री ज॒नय॒न्ब्रह्मा॒पो लो॒कं प्र॒जाप॑तिं परमे॒ष्ठिनं॑ वि॒राज॑म्। गर्भो॑ भू॒त्वामृत॑स्य॒ योना॒विन्द्रो॑ ह भू॒त्वासु॑रांस्ततर्ह ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । ज॒नय॑न् । ब्रह्म॑ । अ॒प: । लो॒कम् । प्र॒जाऽप॑तिम् । प॒र॒मे॒ऽन॑म् । विऽराज॑म् । गर्भ॑: । भू॒त्वा । अ॒मृत॑स्य । योनौ॑ । इन्द्र॑: । ह॒ । भू॒त्वा । असु॑रान् । त॒त॒र्ह॒ ॥७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचारी जनयन्ब्रह्मापो लोकं प्रजापतिं परमेष्ठिनं विराजम्। गर्भो भूत्वामृतस्य योनाविन्द्रो ह भूत्वासुरांस्ततर्ह ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचारी । जनयन् । ब्रह्म । अप: । लोकम् । प्रजाऽपतिम् । परमेऽनम् । विऽराजम् । गर्भ: । भूत्वा । अमृतस्य । योनौ । इन्द्र: । ह । भूत्वा । असुरान् । ततर्ह ॥७.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्म) वेदविद्या (अपः) प्राणों, (लोकम्) संसार और (प्रजापतिम्) प्रजापालक (परमेष्ठिनम्) सबसे ऊँचे मोक्ष पद में स्थितिवाले (विराजम्) विविध जगत् के प्रकाशक [परमात्मा] को (जनयन्) प्रकट करते हुए (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ने (अमृतस्य) अमरपन [अर्थात् मोक्ष] की (योनौ) योनि [उत्पत्तिस्थान अर्थात् ब्रह्मविद्या] में (गर्भः) गर्भ (भूत्वा) होकर [गर्भ के समान नियम से रहकर] और (ह) निस्सन्देह (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला [अथवा सूर्यसमान प्रतापी] (भूत्वा) होकर (असुरान्) असुरों [दुष्ट पाखण्डियों] को (ततर्ह) नष्ट किया है ॥७॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी वेदविद्या, प्राणविद्या, लोकविद्या, और ईश्वरस्वरूप का प्रकाश करके मोक्षमार्ग में दृढ़ होकर ऐश्वर्य प्राप्त करता और पाखण्डों को नष्ट करता है ॥७॥
टिप्पणी
७−(ब्रह्मचारी) म० १ (जनयन्) प्रकटयन् (ब्रह्म) वेदविद्याम् (अपः) प्राणान् (लोकम्) संसारम् (प्रजापतिम्) प्रजापालकम् (परमेष्ठिनम्) अ० १।७।२। उत्तम पदे मोक्षे स्थितिमन्तम् (विराजम्) विविधजगतः प्रकाशकं परमेश्वरम् (गर्भो भूत्वा) गर्भवन्नियमेन स्थित्वा (अमृतस्य) अमरणस्य मोक्षस्य (योनौ) उत्पत्तिस्थाने। वेदज्ञाने (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्। सूर्यवत्तेजस्वी वा (ह) निश्चयेन (भूत्वा) (असुरान्) सुरविरोधिनो दुष्टान् पाखण्डिनः (ततर्ह) तृह हिंसायाम् लिट्। नाशितवान् ॥
विषय
ब्रह्म, अप: लोकं, प्रजापतिम्
पदार्थ
१. (अमृतस्य योनौ गर्भ: भूत्वा ब्रह्मचारी) = ज्ञानामृत के केन्द्र आचार्यकुल में आचार्यगर्भ में रहता हुआ अतएव किन्हीं भी वासनाओं के आक्रमण से आक्रान्त न होकर सदा ज्ञान में विचरता हुआ यह ब्रह्मचारी (ब्रह्म) = ज्ञान को (अप:) = यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों को (लोकम) = दर्शनशक्ति वस्तुओं को वास्तविक रूप में देखने की शक्ति को (जनयन्) = अपने में प्रादुर्भूत करता हुआ तथा उस (परमेष्ठिनं विराजं प्रजापतिम्) = परम स्थान में स्थित, विशिष्ट दीसिवाले, प्रजाओं के रक्षक प्रभु को [जनयन्-] अपने हृदयदेश में प्रादुर्भूत करता हुआ, यह (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय बनता है तथा (ह) = निश्चय से [इन्द्रः] (भूत्वा) = जितेन्द्रिय बनकर (असुरान् ततर्ह) = आसुरभावों का हिंसन कर डालता है।
भावार्थ
आचार्य को उपनीत किये हुए ब्रह्मचारी को अपने गर्भ में धारण करते हुए 'ज्ञान, यज्ञादिक कर्मों, दर्शनशक्ति व प्रभुस्मरण की भावना से युक्त करना है तभी वह ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय बनकर आसुरभावों का संहार कर पाएगा।
भाषार्थ
(ब्रह्म) वेदविद्या को, (अपः) कर्तव्य कर्म को, (लोकम) लोकज्ञान को (प्रजापतिम्) प्रजाओं के पति गृहस्थी तथा राजा के कर्तव्यों को (विराजं परमेष्ठिनम्) तथा देदीप्यमान परमोच्च स्थिति वाले परमेश्वर को (जनयन्) प्रकट करता हुआ, इनके यथार्थ स्वरूपों का कथन करता हुआ, [मुहुराचरिक्रत् मन्त्र ६] और (अमृतस्य) अमृत होने की (योनौ) योनि अर्थात् वेदमाता की योनि में (गर्भः भूत्वा) गर्भीभूत हो कर (इन्द्रः भूत्वा) और इन्द्र पदवी को पा कर (असुरान्) आसुर विचारों तथा आसुर कर्मों का (ततर्ह) विनाश करता है।
टिप्पणी
[ब्रह्म = वेद, यथा "त्रयं ब्रह्म सनातम्, ऋग्यजुः सामलक्षणम्" (मनु०)। अपः= कर्म (निघं० २।१) गीता में कहा है कि "किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:" (४।१६)। अतः पूर्ण ब्रह्मचारी कर्म विद्या को भी प्रकट करता है। लोकम्= लोकज्ञान तथा लोक-संग्रह (मन्त्र ६) तथा (मन्त्र ८)। योनौ= उदरे, (मन्त्र ३)। वेदमाता के गर्भ अर्थात् उदर में। वेद को माता भी कहा है। यथा "स्तुता मया वरदा वेदमाता" (अथर्व० १९।७१।१)। वेदमाता के गर्भ में वास कर और उस के ज्ञान दुग्ध का पानकर व्यक्ति अमृत हो जाता है, जन्म-मरण को परम्परा से दीर्घकाल के लिए मुक्ति पा लेता है। इन्द्रः१= चतुर्थाश्रमी (देखो मन्त्र १६ की व्याख्या)। असुरान्= यथा "देवासुरसंग्राम"। इस संग्राम में चतुर्थाश्रमी ब्रह्मचारी देव है, और असुर और आसुर कर्म असुर हैं]। [१. इन्द्र का अर्थ "जीवात्मा" भी होता है, जो इन्द्रियों का स्वामी है। इन्द्र द्वारा चतुर्थाश्रमी को आत्मशक्ति-सम्पन्न सूचित किया है। ऐसा व्यक्ति देवासुर-संग्राम में असुरों और आसुरी वृत्तियों पर विजय पा सकता है।]
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी ही (ब्रह्म) ब्राह्मण वर्ण को, (अपः) प्राप्त पुरुषों को, (लोकम्) इस भूलोक को, (प्रजापतिम्) प्रजा के पालक (परमेष्ठिनम्) परम सर्वोच्चस्थान पर स्थित सम्राट् को और (विराजम्) विराट् को भी (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ और (अमृतस्य योनौ) अमृत, मोक्ष के परम स्थान में (गर्भः भूत्वा) सर्वग्रहण समर्थ होकर ऐश्वर्य और बल में (इन्द्रः ह) साक्षात् इन्द होकर (असुरान्) असुरों का (ततर्ह) विनाश करता है। प्रजापति, परमेष्ठी, विराट् और इन्द्र ये उत्तरोत्तर विभूतिमान् पद हैं जिनको ब्रह्मचारी ही प्राप्त हो सकता है और वही असुरों का संहार करता है।
टिप्पणी
(च०) ‘अमृताँ स्तर्ह’ इति पैप्प० सं०। (तृ०) ‘भूत्वा अमृतस्य’ इति च क्वचित्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
आदित्यपरक व्याख्या-ब्रह्मचारी) आदित्य (ब्रह्म-अप:-लोकं प्रजापति परमेष्ठिनं विराजं जनयन्) ब्रह्म अर्थात् ज्ञानाग्नि को, "अग्नि वै ब्रह्म" (शत० ८।५।१।१२) पुनः जलीय लोक, प्रजापति- पृथिवी लोक को "प्राजापत्यो वा अय भूलोकः" ( तै० १ । ३ । ७ । ५ ) परमेष्ठी अर्थात् द्युलोक को, विराट् अन्तरिक्ष लोक को प्रकट करता है; जबकि (अमृतस्य योनौ गर्भ:-भूत्वा) अनश्वर परमात्मा के आश्रय में गर्भ- हिरण्यगर्भ होकर पुन: (इन्द्र:भूत्वा असुरान् ततर्ह) ऐश्वर्यवान् होकर प्रचण्ड तापवान होकर असुरों- रोग करने वाले दोषों और अन्धकारादि को विनष्ट करता है । विद्यार्थी के विषय मॅ- (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्यव्रती जन (ब्रह्म जनयन्) अपने अन्दर वेदज्ञान को उत्पन्न करता हुआ (अपः-लोकं प्रजापति परमेष्ठिनं विराजम्) जलीय लोक को, पृथिवी लोक को, द्युलोक को अन्तरिक्ष लोक को अर्थात् उनके गुणों को अपने आत्मा में प्रकट करता है जब (अमृतस्य योनौ गर्भ:-भूत्वा) एकरस नित्य परमात्मा के आश्रय में उसके गुणों से गर्भित होकर पुनः (इन्द्र:-भूत्वा असुरान् ततर्ह) इन्द्र अर्थात् आत्मा केवल आत्मा होकर परज्योति स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो "परं ज्योतिरूपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्यद्यते" (छान्दो० ८।१२।३) असुरों अर्थात् विविध, मल, रोग, दुःख, शत्रुओं को नष्ट करता है ॥७॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
Having been an inmate in the house of immortal learning and grown to be a great scholar with the title of Indra, the Brahmachari now, contributing to sacred and secular knowledge of life, doing social work with noble action in the service of Prajapati, self-refulgent lord supreme and ruling powers of the nation, goes about dispelling the negative forces which damage life and the environment.
Translation
The Vedic student, generating the brahman, the waters, the world, Prajapati, the most exalted one, the viraj, having become an embryo in the womb of immorality; having become Indra, he has shattered (trh) the Asuras.
Translation
Revealing by his life and teaching the principles of Vedic lore the science of the vital airs, the sciences, regarding the world of creatures, the science which treats of the nature of God, the Revealer of all the worlds and the Lord of all creatures in his Highest Beatific state, the Vedic Student, lying hidden and growing day by day as a foetus in knowledge of God, the source of salvation, becomes most brilliant like the Sun and suppresses all that are heretically inclined,
Translation
A Brahmchari, seated in the womb of immortal knowledge, with his preceptor, expatiating on the Veda, Karma, common-folk, the Highest, Refulgent God, the Lord of His subjects, being verily resplendent like the Sun, destroys the ignoble.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(ब्रह्मचारी) म० १ (जनयन्) प्रकटयन् (ब्रह्म) वेदविद्याम् (अपः) प्राणान् (लोकम्) संसारम् (प्रजापतिम्) प्रजापालकम् (परमेष्ठिनम्) अ० १।७।२। उत्तम पदे मोक्षे स्थितिमन्तम् (विराजम्) विविधजगतः प्रकाशकं परमेश्वरम् (गर्भो भूत्वा) गर्भवन्नियमेन स्थित्वा (अमृतस्य) अमरणस्य मोक्षस्य (योनौ) उत्पत्तिस्थाने। वेदज्ञाने (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्। सूर्यवत्तेजस्वी वा (ह) निश्चयेन (भूत्वा) (असुरान्) सुरविरोधिनो दुष्टान् पाखण्डिनः (ततर्ह) तृह हिंसायाम् लिट्। नाशितवान् ॥
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