अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - उरोबृहती
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
401
आ॑चा॒र्य उप॒नय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं॑ कृणुते॒ गर्भ॑म॒न्तः। तं रात्री॑स्ति॒स्र उ॒दरे॑ बिभर्ति॒ तं जा॒तं द्रष्टु॑मभि॒संय॑न्ति दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽचा॒र्य᳡: । उ॒प॒ऽनय॑मान: । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑म् । कृ॒णु॒ते॒ । गर्भ॑म् । अ॒न्त: । तम् । रात्री॑: । ति॒स्र: । उ॒दरे॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । तम् । जा॒तम् । द्रष्टु॑म् । अ॒भि॒ऽसंय॑न्ति । दे॒वा: ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठआऽचार्य: । उपऽनयमान: । ब्रह्मऽचारिणम् । कृणुते । गर्भम् । अन्त: । तम् । रात्री: । तिस्र: । उदरे । बिभर्ति । तम् । जातम् । द्रष्टुम् । अभिऽसंयन्ति । देवा: ॥७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी [वेदपाठी और जितेन्द्रिय पुरुष] को (उपनयमानः) समीप लाता हुआ [उपनयनपूर्वक वेद पढ़ाता हुआ] (आचार्यः) आचार्य (अन्तः) भीतर [अपने आश्रम में उसको] (गर्भम्) गर्भ [के समान] (कृणुते) बनाता है। (तम्) उस [ब्रह्मचारी] को (तिस्रः रात्रीः) तीन राति (उदरे) उदर में [अपने शरण में] (बिभर्ति) रखता है, (जातम्) प्रसिद्ध हुए (तम्) उस [ब्रह्मचारी] को (द्रष्टुम्) देखने के लिये (देवाः) विद्वान् लोग (अभिसंयन्ति) मिलकर जाते हैं ॥३॥
भावार्थ
उपनयन संस्कार कराता हुआ आचार्य ब्रह्मचारी को, उसके उत्तम गुणों की परीक्षा लेने और उत्तम शिक्षा देने के लिये, तीन दिन राति अपने समीप रखता है और ब्रह्मचर्य और विद्या पूर्ण होने पर विद्वान् लोग ब्रह्मचारी का आदर मान करते हैं ॥३॥मन्त्र ३-७ महर्षि दयानन्तकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वर्णाश्रमविषय पृ० २३५-२३७ में, और मन्त्र ३, ४, ६, संस्कारविधि वेदारम्भप्रकरण में व्याख्यात हैं ॥
टिप्पणी
३−(आचार्यः) म० १। साङ्गोपाङ्गवेदाध्यापकः (उपनयमानः) संमाननोत्सञ्जनाचार्यकरण०। पा० १।३।३६। इत्यात्मनेपदम्। स्वसमीपं गमयन्। उपनयनपूर्वकेण वेदाध्यापनेन प्रापयन् (ब्रह्मचारिणम्) म० १। वेदपाठिनं वीर्यनिग्राहकम् (कृणुते) करोति (गर्भम्) गर्भरूपम् (अन्तः) मध्ये। स्वाश्रमे (तम्) ब्रह्मचारिणम् (तिस्रः रात्रीः) त्रिदिनपर्यन्तम् (उदरे) स्वशरणे (बिभर्ति) धारयति (तम्) (जातम्) प्रसिद्धम् (द्रष्टुम्) अवलोकयितुम् (अभिसंयन्ति) अभिमुखं संभूय गच्छन्ति (देवाः) विद्वांसः ॥
विषय
आचार्य द्वारा तीन रात्रि बाल्य को गर्भ में धारण करना
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
मुनिवरों! हमारे यहाँ जब बालक माता पिता के गृह को त्याग करके, गुरु के कुल में जाता है, तो हमारे ऋषियों ने कुछ ऐसा कहा है, कि वह शिष्य यज्ञोपवीत के पश्चात आचार्यों के गर्भ में तीन दिवस और तीन रात्रि रहता है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है, कि वह बालक आचार्य के गर्भ में कैसे रहता है?
मुनिवरों! आचार्य उस बालक को नियन्त्रण में करते हुए तीन दिवस और तीन रात्रि अपने आङ्गन में धारण करते हैं और उस पर निदान किया करते हैं, मन्थन किया करते हैं, कि यह जो बालक तेरे कुल में शिक्षा पाने आया है, यह कौन से कुल का बनना चाहता है, यह कौन से वर्ण का हो सकता है? उसके अन्तःकरण को जान करके, कि यदि वह आयुर्वेद में, वेद पाठ में और महान विचारों में पारंगत तो ब्राह्मण कुल में अर्पण कर देते, यदि वह रक्षा करने में, धनुर्वेद शिक्षा के लिए प्रचण्ड होता है, तो उसको क्षत्रिय कुल में अर्पित किया जाता है, यदि वह व्यापार कार्य में कुशल तो उसको वैश्य कुल में अपर्ण किया जाता है और जो न व्यापार कर सकता है, न रक्षा हो कर सकता है और न वेदपाठी बन सकता है, उसको उन तीन दिवस और तीन रात्रि में आचार्य जान लेते थे कि यह शूद्र बालक है।
मुनिवरों! इसके पश्चात जीवन का निदान होता है। गुरु शिष्य का कितना ऊँचा सम्बन्ध है, जब गुरु के चरणों में ओत प्रोत होकर, शिक्षा को पाया जाता है, उस समय गुरु शिष्य की कितनी ऊँची महिमा है।
मुनिवरों! मुझे वर्णन मिला है, कि जब महर्षि याज्ञवल्क्य अपने शिष्य मण्डल को शिक्षा देते थे, तो वह वमन किया करते थे और शिष्य उस वमन को पान कर लेते थे। आज हमें विचारना है, कि वमन क्या है?
आज जिस विद्या को हमने करोड़ों वर्ष पूर्व पान किया, उस विद्या का गुरु बनकर, शिष्य मण्डल में प्रसार कर रहे हैं। गुरु ने जो विद्या झूठी कर दी है, अर्थात जो उसका वमन है, शिष्य मण्डल को उसको ग्रहण किया करते हैं।
आज तू पुनः से और यज्ञ वेदी पर आ करके, नियम बना जो वास्तिवक नियम हैं। महाराजा रघु के यहाँ यज्ञ हुआ। सब ब्राह्मण आए। ऋषि मुनियों को चुनौती दी और उन ऋषि मुनियों को ब्रह्मा की उपाधि प्राप्त कराई गई, जो यह जानते थे, कि जो यज्ञ वेदी पर यज्ञमान, होता, अध्वर्यु और उद्गाता चुना है, वह कैसा है। वह किस भाव का है। कैसा इनका चरित्र है। यह सब कुछ योगी लोग जान लेते हैं। आज तुझे अपने जीवन की ऊँचा बनाने के लिए और दूसरों के जीवन को जानने के लिए तुझे अपने मनोविज्ञान को जानना है। आज तुझे उस मस्तिष्क विज्ञान को जानना है, हमारा आयुर्वेद कह रहा है। आज हमारी संहिता पुकार कर कह रही है। हमारा वेदमन्त्र पुकार रहा है। तुझे वेद के प्रत्येक मन्त्र पर विचार करना है, और उसको अपनाना है। वह तेरा गहना है।
तो आचार्यजन ही मानो देखो, इन चारों वर्णों का निर्माण करते रहते हैं, चारों वर्णों का निर्माण विद्यालय में होता है मानो देखो, आचार्यजन पाण्डितव वह बालक ब्राह्मण का है, अथवा नही है, परन्तु यदि उसमें बुद्धि नही हैं, यदि वह निरबुद्धि है, तो वह मानो देखो, वह शूद्र की संज्ञा उसे प्रदान कर देते थे। यदि क्षत्रिय का बाल्य है, ब्रह्मचारी है, विद्यालयों में देखो, जब उसका निर्माण करता है, अपने संरक्षण में तीन तीन दिवस तक देखो, वह गर्भ में धारण करता हैं ब्रह्मचारी को, वह मानो देखो, तीन ही दिवस में यह प्रतीत हो जाता हैं, क्या यह सेवक के तुल्य है, क्या यह सेवक के तुल्य है, यह ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य के तुल्य है, जो वणज में मानो पारायण है, वह ब्राह्मण का बाल्य क्यों न हो, यदि वह संग्राम में कुशल है, तो वह क्यों न मानो देखो, वह शूद्र संज्ञा के गृह में जन्म लेने वाला क्यों न हो, उसका निर्माण करने वाला मानो समाज का निर्माण जो होता है, वह विद्यालय में होता है, और विद्यालयों का देखो, निर्वाचन होना ही राष्ट्र के लिए देखो, हितकर कहलाता हैं।
विषय
गर्भम् अन्तः
पदार्थ
१. (आचार्य:) = आचार्य (ब्रह्मचारिणम्) = ब्रह्मचारी को (उपनयमान:) = अपने समीप प्राप्त कराता हुआ (अन्त:) = विद्याशरीर के मध्य में (गर्भः कृणुते) = गर्भरूप से स्थापित करता है। (तम्) = उस ब्रह्मचारी को (तिस्त्रा रात्री:) = तीन रात्रियों तक-प्रकृति, जीव व परमात्मा-विषयक अज्ञानान्धकार के दर होने तक (उदरे बिभर्ति) = अपने अन्दर धारण करता है। आजकल की भाषा में प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षणालयों में ज्ञान प्राप्त कर लेने तक वह आचार्यकुल में ही रहता है। २. तीन रात्रियों की समाप्ति पर (जातं तम्) = विद्यामय शरीर से प्रादुर्भूत हुए-हुए उस ब्रह्मचारी को-स्रातक को-(द्रष्टुम्) = देखने के लिए (देवाः अभिसंयन्ति) = देव आभिमुख्येन प्रास होते हैं। देव उसे देखने के लिए उपस्थित होते हैं। [स हि विद्यातस्तं जनयति। तच्छ्रेष्ठं जन्म। शरीरमेव मातापितरौ जनयतः । आपस्तम्ब १।१।१५-१७]
भावार्थ
आचार्य विद्यार्थी को अपने समीप अत्यन्त सुरक्षित रूप में रखता है। वहाँ वासनाओं व विलासों से दूर रखता हुआ वह उसे 'विकसित शरीर, मन व मस्तिष्कवाला' बनाता है। इसप्रकार विकसित जीवनवाले विद्यार्थी को देखने के लिए विद्वान् उपस्थित होते हैं।
भाषार्थ
(ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी को (उपनयमानः) अपने समीप प्राप्त करता हुआ (आचार्यः) आचार्य, (अन्तः) विद्या या गायत्री या निज स्वरूप में (गर्भम् कृणुते) गर्भरूप में [पालित] करता है, (तम्) उस गर्भीभूत को (तिस्रः रात्रीः) तीन रात्री पर्यन्त (उदरे) उदर में (बिभर्ति) धारित तथा परिपुष्ट करता है। (जातम्, तम्) पैदा हुए उस को (द्रष्टुम्) देखने के लिये (अभि) उस के संमुख (देवाः) देवकोटि के लोग (संयन्ति) मिल कर जाते हैं।
टिप्पणी
[उपनयमानः= उपनयन संस्कार द्वारा निज सामिप्य में लाता हुआ। वर्तमान काल में पुरोहित बच्चों का उपनयन तो करा देते हैं, परन्तु उन के साथ समीपता में नहीं रहते। ब्रह्मचारिणम्= उपनयन के पश्चात् ब्रह्मचारी ब्रह्म में तथा वेद-विद्या में विरचता है। गर्भमन्तः= आचार्य ब्रह्मचारी को निज सामीप्य में लेकर उसकी रक्षा तथा पालन-पोषण इस प्रकार करे जैसे कि माता गर्भस्थ बच्चे की रक्षा तथा पालन-पोषण करती है। तिस्रः रात्रीः= ब्रह्मचर्य के तीन काल हैं, वसु काल २४ वर्षों की आयु तक, रूद्रकाल ३६ बर्षों की आयु तक, आदित्य काल ४८ वर्षों की आयु तक। ४८ वर्षों की आयु के काल को "तिस्रः रात्रीः" कहा है। ब्रह्मचारी के लिये यह काल रात्रीरूप है। इस काल को ब्रह्मचारी निज के लिये अन्धकाररूप जाने, और आचार्य द्वारा प्रदर्शित जीवन मार्ग के प्रकाश द्वारा जीवनचर्या करे। जातम् = शारीरिक जन्म तो माता पिता देते हैं, परन्तू द्वितीय-जन्म आचार्य देकर, ब्रह्मचारी को द्विजन्मा बनाता है। यह द्वितीयजन्म, श्रेष्ठ जन्म हैं।]
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(उपनयमानः आचार्यः) उपनयन संस्कार करता हुआ आचार्य (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचारी को (अन्तः गर्भम्) अपने भीतर, गर्भ को माता के समान (कृणुते) धारण करता है (तं) उसको (तिस्रः रात्रीः) तीन रातों तक अर्थात् तीन दिन अपने (उदरे बिभर्ति) माता के समान अपने में धारण करता है। (तम्) उसको (जातम्) ब्रह्मचारी बनते हुए को (द्रष्टुम्) देखने के लिये (देवाः) धन और विद्या के दानशील, दूसरों को विद्या का दर्शन करानेहारे विद्वान् लोग भी (अभिसंयन्ति) चारों ओर से आते हैं। स ह विद्यातस्तं जनयति। तच्छ्रेष्ठं जन्म जनयतः। शरीरमेव मातापितरौ इति (आप० ध० १। १। १४–१)।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(आचार्य:) अपने व्यक्तित्व के आश्रय योग्य विश्वकर्ता परमात्मा (ब्रह्मचारिणम्) आदित्य को (उपनयमान:) उपाश्रयः में संस्थापन के हेतु (गर्भम्-अन्त: कृणुते) स्वकीय ग्रहणबल के अन्दर धारण करता है (तं तिस्रः-रात्री:-उदरे बिभर्ति) उसे द्युलोक, अन्तरिक्षलोक और पृथिवीलोकों में वर्तमान रात्रिरूप अन्धकारमय आवरण अवसरपर्यन्त अपने अन्दर धारण करता है (तं जातं द्रष्टुं देवा:-अभिसंयन्ति) प्रकटीभूत प्रकाशमान आदित्य को देखने के लिए आदि देव परम ऋषि अभिलक्षित करते हैं । विद्यार्थी के विषय में-(आचार्यः) विद्या प्राप्ति के लिए आचरण करने योग्य विद्वान् आचार्य (ब्रह्मचारिणम्) ब्रह्मचव्रती जन को (उप-नयमान:) विद्याध्ययन के लिये अपने आश्रय में लेने के हेतु (गर्भम् अन्तः कृणुते) गर्भ की भांति या गर्भरूप अपने अन्दर अङ्गीकार करता है (तं तिस्रः-रात्री:-उदरे विभर्ति) उस ब्रह्मचर्यव्रती नवदीक्षित को वेदत्रयी उसके प्रतिनिधिभूत सावित्री के शिक्षण के लिये स्वाश्रय में तीन दिन रखता है "त्रिः सावित्रीमधीते" (बारह ग्र० सू० ६) पुन: (तं जातं द्रष्टु देवा:-अभिसंयन्ति) आचार्य के उपाश्रय से बाहिर आये हुए सावित्री से प्राप्त ज्ञानसंस्कार वाले ब्रह्मचारी को देखने के लिये पितृकुलीय और गुरुकुलीय पुराने तथा नवीन विद्वान् अनुकूल प्राप्त होते हैं ॥३॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
The teacher, Acharya, keeps the Brahmachari being admitted to the school close to him for three days and nights like a mother bearing the child in the womb, and when the Brahmachari emerges from that close observation, noble and brilliant people of the community come together to meet him.
Translation
The teacher, taking (him) in charge (upa-ni) makes the Vedic student an embryo within; he bears him in his belly three nights; the gods gather unto him to see him when born.
Translation
The preceptor admits him to his college and keeps him in his shelter and watchful attention for three days and three nights. When his course of study is completed the learned eagerly assemble to see him.
Translation
The Acharya, welcoming his new disciple, into his Ashram takes the Brahmachari. Three nights he holds him under his supervision. On being invested with the sacred thread the learned assemble to see him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(आचार्यः) म० १। साङ्गोपाङ्गवेदाध्यापकः (उपनयमानः) संमाननोत्सञ्जनाचार्यकरण०। पा० १।३।३६। इत्यात्मनेपदम्। स्वसमीपं गमयन्। उपनयनपूर्वकेण वेदाध्यापनेन प्रापयन् (ब्रह्मचारिणम्) म० १। वेदपाठिनं वीर्यनिग्राहकम् (कृणुते) करोति (गर्भम्) गर्भरूपम् (अन्तः) मध्ये। स्वाश्रमे (तम्) ब्रह्मचारिणम् (तिस्रः रात्रीः) त्रिदिनपर्यन्तम् (उदरे) स्वशरणे (बिभर्ति) धारयति (तम्) (जातम्) प्रसिद्धम् (द्रष्टुम्) अवलोकयितुम् (अभिसंयन्ति) अभिमुखं संभूय गच्छन्ति (देवाः) विद्वांसः ॥
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