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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - पुरोऽतिजागता विराड्जगती सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    99

    आ॑चा॒र्यस्ततक्ष॒ नभ॑सी उ॒भे इ॒मे उ॒र्वी ग॑म्भी॒रे पृ॑थि॒वीं दिवं॑ च। ते र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तस्मि॑न्दे॒वाः संम॑नसो भवन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽचा॒र्य᳡: । त॒त॒क्ष॒ । नभ॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । उ॒र्वी इति॑ । ग॒म्भी॒रे इति॑ । पृ॒थि॒वीम् । दिव॑म् । च॒ । ते इति॑ । र॒क्ष॒ति॒ । तप॑सा । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । तस्मि॑न् । दे॒वा: । सम्ऽम॑नस: । भ॒व॒न्ति॒ ॥७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आचार्यस्ततक्ष नभसी उभे इमे उर्वी गम्भीरे पृथिवीं दिवं च। ते रक्षति तपसा ब्रह्मचारी तस्मिन्देवाः संमनसो भवन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽचार्य: । ततक्ष । नभसी इति । उभे इति । इमे इति । उर्वी इति । गम्भीरे इति । पृथिवीम् । दिवम् । च । ते इति । रक्षति । तपसा । ब्रह्मऽचारी । तस्मिन् । देवा: । सम्ऽमनस: । भवन्ति ॥७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (आचार्यः) आचार्य [साङ्गोपाङ्ग वेद पढ़ानेवाले] ने (उभे) दोनों (इमे) इन (नभसी) परस्पर बँधी हुई, (उर्वी) चौड़ी, (गम्भीरे) गहरी (पृथिवीम्) पृथिवी (च) और (दिवम्) सूर्य को (ततक्ष) सूक्ष्म बनाया है [उपयोगी किया है]। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तपसा) तप से (ते) उन दोनों की (रक्षति) रक्षा करता है, (तस्मिन्) उस [ब्रह्मचारी] में (देवाः) विजय चाहनेवाले पुरुष (संमनसः) एकमन (भवन्ति) होते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    आचार्य और ब्रह्मचारी श्रवण, मनन और निदिध्यासन से विद्या प्राप्त करके संसार के पृथिवी सूर्य आदि सब पदार्थों का तत्त्व जानकर उन्हें उपयोगी बनाते हैं ॥८॥इस मन्त्र का चौथा पाद प्रथम मन्त्र के दूसरे पाद में आ चुका है ॥

    टिप्पणी

    ८−(आचार्यः) म० १। साङ्गोपाङ्गवेदाध्यापकः (ततक्ष) तक्षू तनूकरणे-लिट्। सूक्ष्मीकृतवान् (नभसी) अ० ५।१८।५। णह बन्धने-असुन्, हस्य भः। परस्परबद्धे (उभे) (इमे) (उर्वी) विस्तीर्णे (गम्भीरे) अतलस्पर्शे (पृथिवीम्) भूमिम् (दिवम्) सूर्यम् (च) (ते) द्यावापृथिव्यौ (रक्षति) पालयति (तपसा) स्वब्रह्मचर्यनियमेन (ब्रह्मचारी) म० १। व्रती। अन्यद् व्याख्यातम् म० १ ॥

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    विषय

    पृथिवीं दिवञ्च

    पदार्थ

    १. (आचार्य:) = आचार्य[-ब्रह्मचारी को ज्ञान का चारण करानेवाला] (उभे इमे) = इन दोनों (नभसी) = [नह बन्धने] परस्पर सम्बद्ध (उर्वी गम्भीरे) = विशाल व गम्भीर (प्रथिवीं दिवं च) = पृथिवी व युलोक को (ततक्ष) = बनाता है। आचार्य ब्रह्मचारी को अपने गर्भ में सुरक्षित रखता हुआ और वासनाओं से आक्रान्त न होने देता हुआ विस्तृत शक्तिवाले शरीररूप पृथिवीलोक से तथा गम्भीर ज्ञानवाले मस्तिष्करूप धुलोक से युक्त करता है। ब्रह्मचारी में वह शक्ति व ज्ञान को परस्पर सम्बद्ध [नभसी] करने का यत्न करता है। २. (ब्रह्मचारी) = ज्ञान में विचरण करनेवाला यह शिष्य तेउन दोनों शरीररूप पृथिवीलोक को तथा मस्तिष्करूप धुलोक को (तपसा) = तप के द्वारा (रक्षति) = अपने में सुरक्षित करता है। (तस्मिन्) = उस ब्रह्मचारी में (देवा:) = दिव्य वृत्तियाँ (संमनसः) = संगत मनवाली (भवन्ति) = होती हैं। यह ब्रह्मचारी दिव्य वृत्तियों से युक्त जीवनवाला बनता है। अथवा यह 'माता-पिता, आचार्य व अतिथि' आदि देवों का प्रिय बनता है।

     

    भावार्थ

    आचार्य विद्यार्थी के जीवन में शक्ति व ज्ञान भरने का यत्न करता है। यह विद्यार्थी तप से अपने में ज्ञान व शक्ति का रक्षण करता हुआ देवों का प्रिय बनता है।

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    भाषार्थ

    (उर्वी) विस्तृत और (गम्भीर) गहरे (इमे उभे) इन दो (नभसी पृथिवीं दिवं च) नभों अर्थात् पृथिवी और द्युलोक को, (आचार्यः) आचार्य (ततक्ष) घड़ता है [इन के models, प्रतिरूप, नमूने बनाता है] (ते) उन दो प्रतिरूपों को (ब्रह्मचारी तपसा रक्षति) ब्रह्मचारी तपोमय जीवन व्यतीत करता हुआ सुरक्षित करता है, (तस्मिन्) उस ब्रह्मचारी में (देवाः) पृथिवी और द्युलोक के देव (संमनसः) सांमनस्यरूप में (भवन्ति) हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    [पृथिवीलोक और द्युलोक अति विस्तृत है, और गम्भीर हैं। पृथिवी के गहरे भागों में क्या क्या विद्यमान है, तथा द्युलोक के अति विस्तृत और गहरे अर्थात् दूर तक भीतर के भागों में कौन कौन से और किस-किस प्रकार के तारा हैं,-इन का ज्ञान ब्रह्मचारी को देने के लिये आचार्य, इन के models बनाता है, प्रतिरूप, नमूने तथा चित्रपट बनाता है। ब्रह्मचारी इन को सुरक्षित रखता है। इन प्रतिरूपों द्वारा पार्थिव तथा द्युलोक के देवों अर्थात् घटक-तत्वों का परिज्ञान ब्रह्मचारी में सामंजस्य रूप में, परस्पर अविरोधरूप में रहता है, इस का कारण ब्रह्मचारी का तपोमय जीवन है, वह भोग विलास में न पड़ता हुआ सदा प्राप्त ज्ञान के अभ्यास में रत रहता है। ततक्ष =तक्षू तनूकरणे, अर्थात् सूक्ष्म, छोटे प्रति रूप घड़ता]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (आचार्यः) जिस प्रकार सब का परम आचार्य परमेश्वर (इमे) इन दोनों (उर्वी) विशाल, (गम्भीरे) गम्भीर, (नभसी) सब को अपने भीतर बांधने वाले (पृथिवीं दिवं च) पृथिवी और द्यौलोक को (ततक्ष) बनाता है उसी प्रकार ब्रह्मचारी का आचार्य ही माता और पिता को, प्रजा और राजा को भी विशाल गम्भीर और यशस्वी बना देता है। (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (तपसा) अपने तप से (ते) उन दोनों की (रक्षति) रक्षा करता है। (तस्मिन्) ऐसे ब्रह्मचारी में (देवाः) समस्त देव, विद्वान्गण (संमनसः भवन्ति) एकचित्त होकर रहते हैं।

    टिप्पणी

    (तृ० च०) ‘तौ ब्रह्मचारी तपसाभिरक्षति तयोर्देवाः सदमादं मदन्ति’, (द्वि०) ‘उभे उर्वी’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    आदित्यपरक व्याख्या- (आचार्य:) विश्व का आश्रय योग्य विश्वकर्मा परमात्मा (उभे इमे उर्वी गम्भीरे नभसी) ये दोनों बडे ऊपर नीचे गहन आकाश क्षेत्र। तथा (पृथिवीं दिवं च) इन दोनों क्षेत्रों में पृथिवीलोक और द्युलोक को (ततक्ष) प्रकाशित किया (ब्रह्मचारी ते तपसा रक्षति) वह आदित्य उन दोनों को सब प्रकार से रक्षित करता है (तस्मिन् देवाः संमनसः भवन्ति) उस आदित्य में होने वाले दिव्य पदार्थ प्रकाश ग्रहण और प्रदान में एकस्वभाव रहते हैं । विद्यार्थी के विषय में- (आचार्यः) वेदाचार्य (उभे इमे उवीं गम्भीरे नमसी) ये दोनों महान् गहन ऊपर नीचे स्थित ज्ञान और कर्म के अवकाश क्षेत्र तथा (पृथिर्वी दिवं च) इन दोनों क्षेत्रों में स्थित मूर्द्धा-मस्तिष्क और पाद पैर जो ज्ञान और कर्म के साधन हैं उनको "द्यौर्वा उत्तरं सधस्थम्" (शत० ८।६।३।२३) “यत्कपालमासीत्सा द्यौरभवत्" (शत० ६।१।२।३) "मूर्धा यद् द्यौः” (शत० १०।६।१।८) दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२) "पादौ यत्पृिथिवी" (श० १०।६।१।४) "इयं पृथिवी खलु वै प्रतिष्ठा" (शत० २।२।१।१०) “भूमिः प्रमा" (अथर्व० १०।७।३२) (ततक्ष) प्रकाशित किया- सम्पन्न किया (ब्रह्मचारी ते तपसा रक्षति) ब्रह्मचर्यव्रती जन इन दोनों की यथावत् रक्षा करता है ॥८॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    The teacher prepares and presents fine models of heaven and earth with the solar system, both vast and deep with their atmosphere, both ethereal and vapours. The Brahmachari preserves, protects and serves them both with relentless discipline of his secular and sacred knowledge and commitment, so that, consequently, all the divine forces of earth and heaven become harmonious part of his knowledge and practical pursuit in action.

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    Translation

    The teacher fabricated both these envelops (nabhas), the wide, profound, (namely) earth and sky; them the Vedic student defends by fervor; in him the gods become likeminded.

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    Translation

    The master renders more useful both these vast and profound regions which are united with each other. namely, the earth and the heavens. The Vedic student by his austerities protects them and all beneficent forces of nature cooperate in him (towards his good).

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    Translation

    Just as God fashions these profound and spacious regions, the Earth and Heaven, so does the preceptor make the father and mother of the Brahmchari, glorious and prosperous. The Brahmchari guards them with his penance. On him all learned persons bestow kindness with one mind.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(आचार्यः) म० १। साङ्गोपाङ्गवेदाध्यापकः (ततक्ष) तक्षू तनूकरणे-लिट्। सूक्ष्मीकृतवान् (नभसी) अ० ५।१८।५। णह बन्धने-असुन्, हस्य भः। परस्परबद्धे (उभे) (इमे) (उर्वी) विस्तीर्णे (गम्भीरे) अतलस्पर्शे (पृथिवीम्) भूमिम् (दिवम्) सूर्यम् (च) (ते) द्यावापृथिव्यौ (रक्षति) पालयति (तपसा) स्वब्रह्मचर्यनियमेन (ब्रह्मचारी) म० १। व्रती। अन्यद् व्याख्यातम् म० १ ॥

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